आश्रय कर. तेना आश्रये तुं भवथी छूटी जईश.
एवा ज्ञानमूर्ति शांतिना समुद्रमां घूसीने हुं तो मोक्षना मार्गे जाउं छुं. शरीरमां हुं नथी.
हुं तो शरीरथी बीजे छुं, – क्यां? के अनंत शांतिना हिमालयमां प्रवेशीने शुद्ध चैतन्यनी
भावनामां ज हुं बेठो छुं; ते ज हुं छुं. आवी शुद्ध चैतन्यनी भावना मारा भवरोगना
नाशनुं अमोघ औषध छे. बस, अमारा चित्तमां तो आ चैतन्यप्रभु ज वस्या छे. शुभ–
अशुभ (सुकृत के दुष्कृत) एवी कर्मजाळथी छूटो पडीने, चैतन्य प्रभुना खोळे बेठो छुं,
तेनो आश्रय लीधो छे, हवे अमने कोई चिंता नथी; केमके चैतन्यना आश्रये
भवरोगनो नाश अने मोक्षसुखनी प्राप्ति थाय छे. माटे भवनो नाश करनारी एवी
चैतन्यभावनामां ज हुं एकाग्र छुं... वीतरागी ठंडकना हिमालयमां जईने बेठो छुं,
शांतिना हिमालयमां प्रवेशीने हुं मुमुक्षुमार्गे जाउं छुं.
सुंदर लागती नथी. चैतन्यनी शांति स्वयंभूरमणसमुद्र करतां पण वधु गंभीर छे.
आवा चैतन्यनी विस्मयता – महिमा छोडीने बीजे क््यांय कोई वस्तुमां जेने विस्मयता
ने रस छे तेने चैतन्यरसनो स्वाद आवतो नथी. एवा जीवोने परमसुखनो समुद्र
सदाय दुर्लभ छे; अने धर्मात्माजीवोना हृदयमां आ परमसुखरूप चैतन्यतत्त्व सदाय
वसे छे, एक क्षण पण खसतुं नथी. आवा तत्त्वना सुखनो अनुभव थयो, त्यां तो
आत्मा जागी ऊठ्यो, त्यां हवे मोहनिद्रा केवी? आवुं तत्त्व अमारा अंतरमां, अमारी
परिणतिमां जयवंत वर्ते छे. अमारुं तत्त्व अमारा अनुभवमां प्रसिद्ध थईने विद्यमान
वर्ते छे.
अंतरमां परम महिमावंत पोताना चैतन्यतत्त्वनुं आलोचन – अवलोकन–अनुभव
करतो करतो, ने क्रोधादि सर्वे परभावोने मूळमांथी उखेडतो – उखेडतो ते मुमुक्षुओना
मार्गे मुक्तिपुरीमां जाय छे.