Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९९ आत्मधर्म : ७ :
क्रमबद्ध ऊपजती पर्यायने अनन्यपणुं (तादात्म्यपणुं) पोताना द्रव्य साथे छे ने
बीजाथी तेने भिन्नपणुं छे – आमां तो भेदज्ञाननो महा वीतरागी सिद्धांत छे.
जुओ, आत्मानी पर्यायने आत्मद्रव्य साथे अनन्यपणुं छे; हवे आत्मद्रव्य तो
शुद्ध चैतन्यस्वभावरूप छे; ते चैतन्यस्वभावमां तन्मय थयेली पर्याय पण चैतन्यभाव
रूप ज होय, ने चैतन्यभावमां रागादिनुं कर्तापणुं रहे नहि; एटले द्रव्यस्वभावमां जेणे
तन्मयपणुं स्वीकार्युं तेनी पर्यायोनो क्रम शुद्ध चैतन्यभावरूप ज होय ने तेने रागनुं
अकर्तापणुं ज होय. चैतन्यद्रव्य साथे तन्मय परिणमेली पर्याय राग साथे तन्मय थाय
नहि.–धर्मीजीव पोताना स्वभावना आश्रये आवी चैतन्यमय क्रमबद्ध पर्यायरूपे
परिणमतो थको मोक्षने साधे छे.–आवुं फळ आवे तेणे ज जीव–अजीवना
क्रमबद्धपरिणामनी ने सर्वज्ञनी साची श्रद्धा थई छे; एकला परिणामनी श्रद्धा नथी;
परिणाम साथे अभेद वर्तता द्रव्यसहित तेनी पर्यायने जाणे छे. पर्याय साथे द्रव्यनुं
अनन्यपणुंकहीने आचार्यभगवाने घणुं रहस्य खोल्युं छे. अंदर आत्मानो ज्ञान
स्वभाव शुंचीज छे ते बेठा वगर एक्केय वातनुं साचुं रहस्य समजाय तेम नथी. अने
ज्ञानस्वभावमां स्वसन्मुख थईने आ वातनुं रहस्य जे समज्यो ते तो न्याल थई जाय
छे! तेने भवना छेडा आवी जाय छे ने मोक्षमार्ग शरू थई जाय छे.
जे अजीवनुं कर्तापणुं पोतामां माने अथवा रागमां तन्मय थईने तेना कर्तापणे
परिणमे, अने कहे के अमने क्रमबद्धपर्यायनी ओळखाण छे अथवा पर्यायने द्रव्य साथे
अमे अनन्य मानीए छीए,–तो तेनी वात साची नथी. एणे द्रव्यस्वभावने जाण्यो ज
नथी, ने परथी भिन्नता पण जाणी ज नथी. द्रव्यस्वभाव साथे अनन्यपणुं मानतां तो
पर साथे कर्ताकर्मनी मिथ्याबुद्धि छूटीने पर्याय अंतरमां स्व–सन्मुख थईने सम्यक्त्वादि
शुद्धभावरूप परिणमी जाय छे. एमां बीजा कोईनी अपेक्षा रहेती नथी.
जीवनी जेम अजीवनी पर्यायो पण अन्यनी अपेक्षा वगर, पोताना स्वद्रव्यमां
ज कर्ताकर्मपणे थाय छे.
अहो, निरपेक्ष वस्तुस्वरूप... ते जेना ज्ञानमां बेठुं तेनुं ज्ञान तो जगतथी
निरपेक्ष थईने आत्मामां वळी गयुं... आत्माना आनंदने वेदतुं – वेदतुं ते मोक्ष
तरफ चाल्युं.