
रूप ज होय, ने चैतन्यभावमां रागादिनुं कर्तापणुं रहे नहि; एटले द्रव्यस्वभावमां जेणे
तन्मयपणुं स्वीकार्युं तेनी पर्यायोनो क्रम शुद्ध चैतन्यभावरूप ज होय ने तेने रागनुं
अकर्तापणुं ज होय. चैतन्यद्रव्य साथे तन्मय परिणमेली पर्याय राग साथे तन्मय थाय
नहि.–धर्मीजीव पोताना स्वभावना आश्रये आवी चैतन्यमय क्रमबद्ध पर्यायरूपे
परिणमतो थको मोक्षने साधे छे.–आवुं फळ आवे तेणे ज जीव–अजीवना
क्रमबद्धपरिणामनी ने सर्वज्ञनी साची श्रद्धा थई छे; एकला परिणामनी श्रद्धा नथी;
परिणाम साथे अभेद वर्तता द्रव्यसहित तेनी पर्यायने जाणे छे. पर्याय साथे द्रव्यनुं
अनन्यपणुंकहीने आचार्यभगवाने घणुं रहस्य खोल्युं छे. अंदर आत्मानो ज्ञान
स्वभाव शुंचीज छे ते बेठा वगर एक्केय वातनुं साचुं रहस्य समजाय तेम नथी. अने
ज्ञानस्वभावमां स्वसन्मुख थईने आ वातनुं रहस्य जे समज्यो ते तो न्याल थई जाय
छे! तेने भवना छेडा आवी जाय छे ने मोक्षमार्ग शरू थई जाय छे.
अमे अनन्य मानीए छीए,–तो तेनी वात साची नथी. एणे द्रव्यस्वभावने जाण्यो ज
नथी, ने परथी भिन्नता पण जाणी ज नथी. द्रव्यस्वभाव साथे अनन्यपणुं मानतां तो
पर साथे कर्ताकर्मनी मिथ्याबुद्धि छूटीने पर्याय अंतरमां स्व–सन्मुख थईने सम्यक्त्वादि
शुद्धभावरूप परिणमी जाय छे. एमां बीजा कोईनी अपेक्षा रहेती नथी.
तरफ चाल्युं.