Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९९
अमारा साचा स्वरूपनी अमने एवी तो धगश लागी छे के हवे अमारुं मन
मोह–मायाथी भरेला आ संसारथी विरक्त थई गयुं छे. हवे तो एम ज थाय
छे आनंद.... आनंद..... आनंदथी भरपूर एवा मोक्षनी प्राप्ति करी लउं.
[कलकत्ताना कहान – बालमंडळना नानकडा सभ्योनुं भावभीनुं लखाण आप वांची रह्या छो.]
* अरे जीव! अनंतकाळथी नथी मळी एवी डीग्री आ आत्माना भणतरथी तने
मळी जशे. ’ – बालमंडळना बाळकोए गुरुदेवना आ कथनने बराबर लक्ष्य
बनाव्युं छे.
* शनि – रविवारे भक्ति – पूजनना कार्यक्रममां तो, दरेक बाल – सभ्य जाणे
अरिहंत बनवानी उत्कंठा सेवतो होय! एवुं अनुपम द्रश्य थई जाय छे.
* बालमंडळ स्थपाया पछी दरेक नाना – मोटा सभ्यो एकबीजा साथे गाढ
परिचयमां आव्या..... अने आपणे बधा साधर्मी भाई – बेनो छीए तेवी
ऊंची भावना पेदा थई. साधर्मी बंधुओ प्रत्येनी अपार लागणी ए पण
आपणा उमदा संस्कारनुं कारण छे.
[याद रहे के आ बालमंडळ स्थापनानी मूळ प्रेरणा ‘आत्मधर्म’ ना
बालविभागे जगाडी छे. बाळकोने योग्य उत्साह ने दोरवणी आपवामां आवे
तो तेओ केटलुं सुंदर कार्य करी शके छे! ने जैनशासनना विकासमां केवो सुंदर
फाळो आपी शके छे! तेनुं आ एक उदाहरण छे. माटे ज वारंवार कहेवामां आवे
छे के –
प्रभावना जिनधर्मनी जगमां चाहो महान,
समाजनां सौ बाळने आपो तत्त्वनुं ज्ञान.
* सभ्योमां घणी भक्ति–भावना – उत्साह– जिज्ञासा छे; अंदरनी आत्मभावना
घणी जागृत छे. तेमां खूब आगळ वधवा माटे आ आध्यात्मिक अंक
(ज्ञानबीज) बहार पाडेल छे. तेनी अंदर, धार्मिक संस्कारनुं सींचन थाय अने
वीतरागभाव जगाडे एवा विषयोनो संग्रह कर्योछे. जिनवरनां सौ संतान श्रद्धा
– ज्ञान – चारित्रना हलेसाद्वारा भवसमुद्रने तरीने मोक्षमां सादि – अनंत
भगवाननो साथ पामे... ए ज अभ्यर्थना. – जय जिनेन्द्र.
* हे गुरुदेव! आप तो अमारा धर्मपिता, ने अमे आपना बाळक अमारा जीव–