Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९९ आत्मधर्म : १७ :
जीतो क्षमाथी क्रोधने
राग आग दहै सदा, तातें समामृत सेवीए
अरे जीव! क्रोध तारो स्वभाव नथी, शांति तारो स्वभाव छे.
शांतिना तारा समुद्रमां क्रोधवडे तुं आग न लगाड. शांतरसना तारा
चैतन्यसमुद्रमांथी कांई राग – द्वेषना तणखा न नीकळे... . एमांथी तो
शांति अने सुखना वीतरागी अमृत नीकळे, तारा क्षमादि भावोमां
अनंती ताकात छे तेने संभाळ, ने क्रोधादिने जीती ले. अज्ञानने लीधे
रागादि परभावनी आगमां तुं सदा बळी रह्यो छे, भाई! हवे तारा
शांत चैतन्यसमुद्रमांथी अमृत पी..... ने ए अमृतना पानवडे रागने
आगने बुझावी नांख.
[नियमसार गाथा ११प तथा छहढाळा – प्रवचनमांथी]
आत्माना परम शांतस्वभावना सेवन वडे ज क्रोधादि कषायोने जीती शकाय छे.
अरे जीव! तुं तो सर्वज्ञस्वभावी महान तत्त्व परम शांतरसनो समुद्र छो... छतां
रागनी आगमां केम बळी रह्यो छो? भाई, तेनाथी जुदो पडीने तारा समतारसनुं
सेवन कर.
जराक प्रतिकूळता आवे कोई, निंदा करे, गाळ दे, हलका आळ नांखे त्यां तने
क्रोधनी आग केम भभूकी ऊठे छे? – एमां तो तारो आत्मा दाझे छे. बीजा निंदा करे
तेथी कांई तने नुकशान थई जतुं नथी, तारा क्रोधथी तने नुकशान थाय छे. माटे
क्षमारूपी चैतन्यना शांतरस वडे क्रोधाग्निे बुझाव. अहो, परम शांतरसमय क्षमा, ते
तारा चैतन्यनुं स्वरूप छे, ते वीतरागी समतारसनो स्वाद ले. आ चैतन्यनी क्षमाना
शांतरसना स्वाद पासे, क्रोधादि कषायभावो तो तने अग्नि जेवा लागशे. शांतिना
हिमालयनी ठंडकमांथी बहार नीकळीने क्रोधना अग्निमां कोण जाय? अहीं क्रोधनुं दृष्टांत
छे, तेनी जेम समस्त अशुभ के शुभ रागरूप जे विभावभावो छे ते बधाय चैतन्यनी
शांति पासे तो आग जेवा छे. अज्ञानी चैतन्यने भूलीने सदा रागनी आगमां