वगरनी वीतरागी चैतन्यशांति ते आत्मानुं स्वरूप छे. हे भाई! वीतरागी समतारूपी
जळवडे तुं रागनी आगने बुझाव. हे भाई! क्षमावडे तुं क्रोधने जीती ले. शांतरसना
दरियाथी भरेलुं आ चैतन्यतत्त्व, तेना अनुभवमां कोई कषाय के कोई राग–द्वेष समाय
नहीं, एटले तेनो अनुभव करतां कषायो जीताई जाय छे.
क्रोधादि कषायो छे तेटलुं दुःखनुं वेदन पण छे; तेने धर्मी कलेशरूप समजे छे. आम
धर्मीने एकबाजु वीतरागी शांतिनुं वेदन छे ने एकबाजु संसारनो कलेश पण छे, –
बंने धारा एकबीजाथी विरुद्ध जातनी होवा छतां धर्मीने एकसाथे ते बंने धारा वर्ते छे,
– एवी आश्चर्यकारी धर्मीनी दशा छे.
कषाय छे ते चैतन्यनी शांतिनी पूर्णताने अटकावे छे ने कलेश आपे छे. आम धर्मीजीव
पोतानी दशाना बंने प्रकारोने जेम छे तेम बराबर जाणे छे; ने वीतरागी क्षमादि भावो
वडे क्रोधादि परभावोने ते दूर करे छे, – तेने क्रोधादिना अभाव रूप सामायिक होय छे.
सामायिकमां तो परम शांति छे.
डगावी शके नहि; कोई संयोगो ते शांतिने हणी शके नहि. जुओने, शत्रुंजय पर
चारेकोर अग्निना भडका पण पांडवोनी शांतिने हणी शक्या नहि; ए तो चैतन्यनी
शांतिना बरफ वच्चे बेठा हता.
क्षमा, सामायिक अने ‘प्रायश्चित्त’ छे, उत्कृष्ट ज्ञानपरिणति थई ते पोते ज प्रायश्चित
छे, तेमां सर्व दोषनो अभाव छे. अंतर्मुख परिणतिए क्रोधादि भावने धारण न करतां,
पोतामां पोताना उत्कृष्ट ज्ञानस्वभावने धारण कर्यो, ते ज प्रायश्चित्त छे. उत्कृष्ट ज्ञानने