Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९९
बळी रह्यो छे. ज्ञानीने पण जेटलो राग छे तेटली अशांति छे. राग ते आग छे, तेना
वगरनी वीतरागी चैतन्यशांति ते आत्मानुं स्वरूप छे. हे भाई! वीतरागी समतारूपी
जळवडे तुं रागनी आगने बुझाव. हे भाई! क्षमावडे तुं क्रोधने जीती ले. शांतरसना
दरियाथी भरेलुं आ चैतन्यतत्त्व, तेना अनुभवमां कोई कषाय के कोई राग–द्वेष समाय
नहीं, एटले तेनो अनुभव करतां कषायो जीताई जाय छे.
शांतिमां तो रागादि छे ज नहि. धर्मात्माने जेटली शांति प्रगटी छे ते तो
कषायथी जुदी ज छे, ते शांतिमां दुःखनुं वेदन नथी; पण हजी जेटलो राग छे, जेटला
क्रोधादि कषायो छे तेटलुं दुःखनुं वेदन पण छे; तेने धर्मी कलेशरूप समजे छे. आम
धर्मीने एकबाजु वीतरागी शांतिनुं वेदन छे ने एकबाजु संसारनो कलेश पण छे, –
बंने धारा एकबीजाथी विरुद्ध जातनी होवा छतां धर्मीने एकसाथे ते बंने धारा वर्ते छे,
– एवी आश्चर्यकारी धर्मीनी दशा छे.
एककोर सिद्ध जेवो अतीन्द्रिय महा आनंद पण वर्ते छे, साथे कषायोनो कलेश
पण वर्ते छे; ज्ञानभावथी कषायभाव जुदो छे –एम धर्मी जाणे छे, छतां जे अल्प पण
कषाय छे ते चैतन्यनी शांतिनी पूर्णताने अटकावे छे ने कलेश आपे छे. आम धर्मीजीव
पोतानी दशाना बंने प्रकारोने जेम छे तेम बराबर जाणे छे; ने वीतरागी क्षमादि भावो
वडे क्रोधादि परभावोने ते दूर करे छे, – तेने क्रोधादिना अभाव रूप सामायिक होय छे.
सामायिकमां तो परम शांति छे.
अरे, अंदरना चैतन्यपाताळ फाटीने तेमांथी जे वीतरागी शांति नीकळी, ते
शांतिनी शी वात! चैतन्यमांथी आवेली ए अपार शांतिने कोई प्रतिकूळ संयोगो
डगावी शके नहि; कोई संयोगो ते शांतिने हणी शके नहि. जुओने, शत्रुंजय पर
चारेकोर अग्निना भडका पण पांडवोनी शांतिने हणी शक्या नहि; ए तो चैतन्यनी
शांतिना बरफ वच्चे बेठा हता.
पोतानी परिणतिने अंतरमां एकाग्र करीने तेमां उत्कृष्ट ज्ञानरूप निज आत्माने
धारण कर्यो त्यां हवे ते परिणतिमां क्रोधादिनो अवकाश ज न रह्यो, एटले त्यां खरेखर
क्षमा, सामायिक अने ‘प्रायश्चित्त’ छे, उत्कृष्ट ज्ञानपरिणति थई ते पोते ज प्रायश्चित
छे, तेमां सर्व दोषनो अभाव छे. अंतर्मुख परिणतिए क्रोधादि भावने धारण न करतां,
पोतामां पोताना उत्कृष्ट ज्ञानस्वभावने धारण कर्यो, ते ज प्रायश्चित्त छे. उत्कृष्ट ज्ञानने