Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९९ आत्मधर्म : १९ :
धारण करीने तेणे क्रोधादि कषायोने जीती लीधा ने परम समरसभावरूप पोते थई
गई, आवी परिणति ते पोते सामायिक छे.
जुओने, पांडवो! शरीर बळे छे छतां उत्कृष्ट ज्ञानस्वभावमां ऊतरीने एवा
मशगुल थया के शांतरसमांथी बहार ज न नीकळ्‌या. जड शरीर बळतुं हतुं पण आत्मा
तो चैतन्यना शांतरसमां ठर्यो हतो. शांतरसमां लीनता आडे कोई विकल्पनो अवकाश
न रह्यो, ने परम वीतरागी क्षमा धारण करीने केवळज्ञान पामीने, शत्रुंजय परथी मोक्ष
पाम्या; अत्यारे पण त्यां ज उपर लोकाग्रे सिद्धालयमां बिराजे छे, ने अनंत काळ सुधी
अनंत वीतरागी सुखमां ज लीन रहेशे. पर्यायमां जे अनंतसुख वगेरे प्रगटे छे ते
बधुंय स्वभावमां भर्युं छे. आवा स्वभावने श्रद्धामां – ज्ञानमां – चारित्रमां स्वीकारवो
ते ज सर्व दोषना अभावरूप ने शुद्ध ज्ञानना प्रकाशरूप प्रायश्चित्त छे. धर्मीजीवने
पोताना परमतत्त्वनी प्राप्तिथी परम संतोष थयो, स्वानुभूतिथी परम तृप्ति थई, त्यां
परद्रव्यनी आशा न रही, लोभ न रह्यो – आ रीते परमतत्त्वनी प्राप्तिरूप संतोष वडे
ज लोभ वगेरेने जीती शकाय छे.
धर्मात्मानी पर्यायमां उल्लसतो आनंदनो समुद्र
[अषाड वद सातम: नियमसार गाथा १२१]
अंतर्मुख थईने जेणे निजकारणपरमात्माने जाण्यो छे ने मिथ्यात्वादि भावोने
छोडीने जेणे प्रायश्चित कर्युं छे – चित्तने उज्वळ कर्युं छे – ते धर्मीजीवन कहे छे के अहो!
चैतन्यसुखनो ढगलो अमने प्रगट थयो छे, सहज सुखथी भरेलो चैतन्यचमत्कार
आत्मा अनुभवमां आव्यो छे; आवा आत्मसुखने अमे सर्वदा अनुभवीए छीए, अने
एनाथी विरुद्ध भवसुखना (–खरेखर भवदुःखना) कारणरूप परभावोने अमे
आत्मानी शक्तिथी सर्व प्रकारे छोडीए छीए; कायाने अने मायाने (–काया तरफना
भावोने) छोडीने, अमारी परिणतिने अमे चैतन्यसुखमां जोडी दीधी छे. अरे, अमारी
आवी सहज आत्मसंपदा – के जे अमारा हृदयमां ज छे ने अमारी स्वानुभूतिनो ज
विषय – छे – तेने पूर्वे एक क्षण पण अमे जाणी न हती; हवे आनंदमय ध्यानवडे
अमारी आवी अद्भुत आत्मसंपदाने अमारा अंतरमां अमे प्रगट स्वसंवेदनथी जाणी
छे, ने तेने ज सदाय अनुभवीए छीए.
अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ भगवान आत्मा, तेमां सन्मुख थतां सम्यग्द्रर्शनमां