Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९९ आत्मधर्म : २१ :
धर्मात्मा भवसुखने पण अत्यंत छोडे छे; – भवसुखनुं कारण तो पुण्य – शुभराग छे,
ते रागने अने पुण्यने चैतन्यसुखथी जुदा जाणीने धर्मी पोतानी शक्तिथी तेने छोडे छे,
अत्यंत छोडे छे, भवसुख एटले पुण्यना फळरूप स्वर्गादिनां सुख, – ते कांई खरेखर
सुख नथी, ते तो कल्पनामात्र सुख छे; खरूं सुख एटले आत्मिकसुख तो सहज
चैतन्यपरमतत्त्वना अनुभवमां ज छे. आवा सुखने धर्मी निरंतर अनुभवे छे; ने एना
सिवायना समस्त शुभाशुभने भवदुःखनुं कारण जाणीने छोडे छे. ते जाणे छे के अमारी
द्रष्टिमां, अमारा ज्ञानमां, अमारी अनुभूतिमां आनंदमय परमतत्त्व जयंवत वर्ती रह्युं
छे अमारी परिणतिथी ते दूर नथी, अमारी अंतर्मुख परिणतिमां ते परम तत्त्व बिराजी
ज रह्युं छे; तेमां मोहनो कोई संबंध नथी. मोहनो जेमां अभाव छे ने अनंत गुणना
निर्मळभावो जेमां उल्लसे छे – एवी अंर्तपरिणति धर्मीने निरंतर वर्ते छे.
चैतन्यपरिणतिमां अपूर्व सुखना वेदनपूर्वक पोतानी आत्मसंपदाने जाण्या पछी
धर्मी जीव कहे छे के अरेरे! मारी आवी सरस आत्मसंपदाने पूर्वे अज्ञानभावने लीधे
में कदी न जाणी तेथी हुं भव–भवमां पूर्वे दुःखी थईने संसारमां मार्यो गयो. पण हवे
तो हुं जाग्यो, में मारुं मोक्षघर देख्युं, मारी अपूर्व आत्मसंपदा देखी; तेथी हवे हुं
चैतन्यस्वरूपमांथी उत्पन्न थयेला उत्तम सुखने अनुभवुं छुं; आत्माना सहज सुखनो
निजविलास मने प्रगट थयो छे, ने कर्मरूपी विषवृक्षना समस्त फळने में छोडया छे. –
आवी उज्वळ ज्ञानपरिणति ते पोते ज प्रायश्चित्त छे.
धर्मीजीव परमभावमां स्थित थईने अचिंत्य आत्मसंपदाने अनुभवे छे. अहो!
आवी परम आत्मसंपदा ए ज अमारी अनुभूतिनो विषय छे. बहारना ईन्द्रियविषयो
अमारा नथी, तेनाथी दूर थईने अंतरनी वचनातीत समाधिवडे आत्मसंपदाने विषय
करीने तेना परम सुखने अमे अनुभवीए छीए. अज्ञानीनो आ विषय नथी, आ तो
धर्मात्मानी अनुभूतिनो ज विषय छे. अहा, अंदरनी अनुभूतिमां जेणे आवी अपूर्व
आत्मसंपदाने जाणी लीधी तेने जगतना कोई बाह्यविषयो पोताना लागता नथी, तेमां
तेनुं चित्त ठरतुं नथी. एक चैतन्यभावमां चित्त ठरे छे, ते ज पोतानो लागे छे.
अंतरमां चैतन्यप्रभु भगवान बिराजे छे; शुद्धोपयोग – परिणतिने साथे लईने
ते प्रभु पासे जा. मोटा पुरुषो पासे जाय त्यारे कंईक उत्तम वस्तुनुं भेटणुं साथे लईने
जाय छे, तेम महा चैतन्यप्रभु आत्मा, तेनी पासे शुद्धोपयोगरूप उत्तम भेटणुं लईने
जा. अंदर भगवानने भेटतां तुं न्याल थई जईश. अंतर्मुख थईने आत्माने साधवो ए
ज जैनसंस्कृति छे. तेमां जीवने वीतरागताना संस्कार पडे छे. जेनाथी आत्मामां
वीतरागभावना संस्कार पडे ए ज साची जैनसंस्कृति छे. [वधु माटे जुओ पानु २प]