: श्रावण : २४९९ आत्मधर्म : २३ :
आत्मज्ञान ते वीतराग – विज्ञान.
वीतरागविज्ञान छे सुखनी खाण.
देहथी भिन्न आत्मा आनंदनुं धाम छे. आवा आत्मानुं ज्ञान करवुं ते
वीतरागविज्ञान छे, अने जे वीतरागविज्ञान छे ते सुखनी खाण छे.
शरीर सुंदर – रूपाळुं होय के कदरूपुं होय, ते बंनेथी आत्मा जुदो छे. खरेखर तो
आत्मानुं चेतन – रूप छे ते ज सुंदर छे; पण पोताना सुंदर निजरूपने न देखतां
अज्ञानी शरीरनी सुंदरता वडे पोतानी शोभा माने छे, अने शरीर कदरूप होय त्यां
पोताने हलको माने छे. पण भाई, कदरूपुं शरीर कांई केवळज्ञान लेवामां विघ्न नथी
करतुं, अने सुंदर रूपवाळा होवा छतां पण पाप करीने नरके गया छे, अने कुरूप
शरीरवाळा पण अनेक जीवो आत्मज्ञान करीने मोक्ष पाम्या छे. जोके तीर्थंकरादि उत्तम
पुरुषोने तो देह पण लोकोत्तर होय छे, परंतु ते पण आत्माथी तो जुदो ज छे. देह कांई
आत्मानी वस्तु नथी. देहथी भिन्न आत्माने जे ओळखे तेणे ज भगवानना साचा
रूपने ओळख्युं छे. देह छे ते कांई भगवान नथी; भगवान तो अंदरमां जे चैतन्यमूर्ति
केवळज्ञानादि गुणसहित बिराजमान छे–ते ज छे. दरेक आत्मा आवो चेतनरूप छे;
शरीर सुरूप हो के कुरूप,–ते तो जडनुं रूप छे, आत्मा कदी ते जड रूपपणे थयो नथी. जड
त्रणेकाळ जड रहे छे, ने चेतन त्रणेकाळ चेतन रहे छे; जड अने चेतन कदी पण एक
थता नथी; शरीर अने जीव सदाय जीव ज छे. आवा आत्माने अनुभवमां लेतां
सम्यग्द्रर्शन अने अपूर्व शांति थाय छे. आवा आत्मानी धर्मद्रष्टि वगर कदी दुःख मटे
नहीं ने शांति थाय नहीं.
हे जीव! शरीरना शणगार वडे तारी शोभा नथी, तारी शोभा तो तारा
निजगुणवडे छे. सम्यगद्रर्शनादि अपूर्व रत्नोवडे ज आत्मानी शोभा छे. शरीर तो
चेतना वगरनुं मृतककलेवर छे, – शुं तेनी सजावटथी आत्मा शोभे छे? ना; चेतन
भगवाननी शोभा जड शरीरवडे होय नहीं. सम्यग्द्रर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रयवडे
ज आत्मा शोभे छे. माटे देहद्रष्टि छोडीने आत्माने ओळखो. आत्मानी आवी
ओळखाण ते वीतरागविज्ञान छे, अने वीतरागविज्ञान ते ज सुखनी खाण छे.