यही परमामृत जन्म – जरा – मृति रोग निवारन।।
कोटि जनम तप तपें ज्ञानबिन कर्म झरें जे।
ज्ञानीके छिनमें त्रिगुप्तितें सहज टरैं ते।।
मुनिव्रत धार अनंतबार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतम – ज्ञान बिना सुख लेश न पायो।।
चैतन्यनुं ज्ञानपरिणमन ज जीवने सर्वत्र सुखनुं कारण छे. जन्म–जरा मरणना रोगने
निवारवा माटे आ सम्यग्ज्ञान परम अमृत छे. सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत वडे जन्म–
मरणनो नाश करीने जीव अमरपदने पामे छे.
मन–वचन–कायाथी भिन्न चैतन्परिणति सदाय वर्ते छे ने तेथी सहेजे निर्जरा थया ज
करे छे,–एवी निर्जरा अज्ञानीने घणा तप वडे पण थती नथी. अज्ञानी जीव अनंतवार
मुनिव्रत धारण करीने नवमी ग्रैवेयक सुधी ऊपज्यो, परंतु पोताना आत्मज्ञान वगर
ते लेशमात्र सुख न पाम्यो. जुओ तो खरा! अज्ञानीना पंचमहाव्रत पण जराय सुखनुं
कारण न थया.–क्यांथी थाय? ए तो शुभराग छे. राग ते कांई सुखनुं कारण होय?
रागना फळमां तो बहारनो संयोग मळे ने अंदर आकुळता थाय, पण कांई चैतन्यनी
शांति रागथी न मळे; ए तो चैतन्यना ज्ञानथी ज मळे.