Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९९ आत्मधर्म : २प :
सम्यग्ज्ञानो महिमा
अहो, जीवने परमसुखनुं कारण सम्यग्ज्ञान छे, तेनो महिमा बतावे छे; तथा
तेनुं उत्तम फळ बतावीने तेनी आराधनाने उत्साह जगाडे छे:–
ज्ञानसमान न आन जगतमें सुखको कारन।
यही परमामृत जन्म – जरा – मृति रोग निवारन।।
कोटि जनम तप तपें ज्ञानबिन कर्म झरें जे।
ज्ञानीके छिनमें त्रिगुप्तितें सहज टरैं ते।।
मुनिव्रत धार अनंतबार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतम – ज्ञान बिना सुख लेश न पायो।।
आहो, जगतमां जीवने सम्यग्ज्ञानसमान सुखनुं कारण बीजुं कोई नथी; पुण्य
के पापना भाव सुखनुं कारण नथी, बहारनो वैभव सुखनुंकारण नथी; अंतरमां
चैतन्यनुं ज्ञानपरिणमन ज जीवने सर्वत्र सुखनुं कारण छे. जन्म–जरा मरणना रोगने
निवारवा माटे आ सम्यग्ज्ञान परम अमृत छे. सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत वडे जन्म–
मरणनो नाश करीने जीव अमरपदने पामे छे.
सम्यग्ज्ञान वगर करोडो जन्मो तप तपवाथी अज्ञानीने जे कर्मो झरे छे ते कर्मो
ज्ञानीने त्रिगुप्ति वडे एक क्षणमां सहेजे टळी जाय छे; सम्यग्ज्ञानना प्रतापे ज्ञानीने
मन–वचन–कायाथी भिन्न चैतन्परिणति सदाय वर्ते छे ने तेथी सहेजे निर्जरा थया ज
करे छे,–एवी निर्जरा अज्ञानीने घणा तप वडे पण थती नथी. अज्ञानी जीव अनंतवार
मुनिव्रत धारण करीने नवमी ग्रैवेयक सुधी ऊपज्यो, परंतु पोताना आत्मज्ञान वगर
ते लेशमात्र सुख न पाम्यो. जुओ तो खरा! अज्ञानीना पंचमहाव्रत पण जराय सुखनुं
कारण न थया.–क्यांथी थाय? ए तो शुभराग छे. राग ते कांई सुखनुं कारण होय?
रागना फळमां तो बहारनो संयोग मळे ने अंदर आकुळता थाय, पण कांई चैतन्यनी
शांति रागथी न मळे; ए तो चैतन्यना ज्ञानथी ज मळे.