Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९९
उत्तर: – अरे भाई! एमां आकुळतारूप दुःख ज छे. जडमां सुख – दुःखनी कोई
लागणी नथी; चैतन्यतत्त्व पोताना ज्ञानभाव वडे सुख वेदे छे, ने अज्ञानभावथी दुःख
वेदे छे. भेदज्ञान ते सिद्धपदनुं कारण, ने भेदज्ञाननो अभाव एटले के अज्ञान, ते
संसारदुःखनुं कारण छे. ज्यां चैतन्यना ज्ञाननी शांतिनुं वेदन नथी त्यां कषाय छे, –
भले अशुभ हो के शुभ हो – पण जे कषाय छे ते तो दुःख ज छे. शुभकषाय ते कांई
शांति तो न ज कहेवाय. आत्माना ज्ञान वडे क्षणमात्रमां करोडो भवना कर्मो छूटी जाय
छे, ने सम्यग्ज्ञान वगर करोडो वर्षना तप वडे पण सुखनो छांटोय मळतो नथी. जुओ
तो खरा, ज्ञाननो अपार महिमा! अज्ञानी जीवने ज्ञानना महिमानी खबर नथी, एने
राग देखाय छे, – पण रागथी पार थईने अंदर चैतन्यमां ऊंडु ऊतरी गयेलुंज्ञान तेने
देखातुं नथी. माटे कहे छे के हे भाई! मोक्षनुं कारण तो सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान सहितनुं
चारित्र छे. सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान वगरनुं आचरण तो थोथां छे, तेमां लेश पण सुख नथी.
आ रीते सम्यग्ज्ञानो महिमा जाणीने, तेने परम अमृत समान जाणीने तेनुं सेवन करो.
आ रत्नचिंतामणी जेवी मनुष्यपर्याय पामीने तथा जिनवाणीनुं श्रवण करीने,
हे जीवो! तमे दुर्लभ एवा सम्यग्ज्ञाननो अभ्यास करो, अने आत्मानो ओळखी ल्यो –
एम सर्वे संतोनो उपदेश छे.
स्व विषयमां सुख * पर विषयमां दुःख
जीवने बधा पदार्थो जाणवानी ईच्छा छे, पण ईन्द्रियाधीन थयेलुं
ज्ञान पोतपोताना अल्प विषयोने ज ग्रहण करी शके छे, ने बाह्यविषयो
तरफना वेगथी ते आकुळ – व्याकुळ दुःखी रहे छे. जो ईन्द्रियोथी भिन्नता
जाणी, ज्ञानने अंतर्मुख करीने स्व–विषयने ग्रहण करे तो आनंदनो अनुभव
थाय ने बाह्यविषयोना ग्रहणनी आकुळता मटी जाय.