Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९९ आत्मधर्म : ४१ :
कर्तृनयथी रागनुं कर्तापणुं जाणनारी द्रष्टि पण शुद्धआत्मद्रव्य उपर ज होय छे, ने
शुद्धआत्मा उपर द्रष्टि होय तेने विकारनुं कर्तृत्व टळीने अल्पकाळमां वीतरागता थया
विना रहे ज नहि. आ रीते अनंतधर्मना आधाररूप शुद्धआत्मद्रव्यने द्रष्टिमां राखीने
समजे तो ज बधा कथननुं यथार्थ तात्पर्य समजाय छे. अने आवुं तात्पर्य समजनार
ज्ञानी –साधकनी दशा कोई अद्भुत अपूर्व–अचिंत्य – आनंदरूप होय छे.
जैन संस्कृति शुं छे?
जेनाथी आत्माने वीतरागभावना उत्तम संस्कार पडे ते ज साची जैनसंस्कृति
छे. एटले अंतर्मुख थईने आत्माने साधवो ते ज जैनसंस्कृति छे, तेमां जीवने
वीतरागताना संस्कार पडे छे.
जैनधर्मनी सामायिक केवी छे?
जेमां चैतन्यनो शान्त वीतरागरस झरे छे – एवा समभावनो अनुभव ते
सामायिक छे.
तमे कार्यकर्ता छो?
हा; धर्मी कहे छे के अमारा स्वभावने साधवारूप कार्यना अमे कर्ता छीए, तेथी
अमे कार्यकर्ता छीए. स्वभावने साधवो ते अमारुं कार्य छे. अमारा ज्ञान–
आनंदरूप कार्यना कर्ता अमे छीए.
आ मनुष्यपणुं पामीने सारूं कार्य शुं करवुं?
आत्माना अनुभव जेवुं सारूं काम बीजुं कोई नथी, माटे ते सारूं कार्य करवुं.
(खरेखर, शुद्धात्माना अनुभवरूप जे समयसार, तेनाथी ऊंचुं बीजुं कांई नथी.)
गुणवंता ज्ञानीनी भक्ति कई रीते थाय?
ज्ञानीना गुणने ओळखतां तेना प्रत्येनो जे महान प्रमोदभाव जागे छे ने
पोतानो आत्मा पण तेवा गुण प्रगट करवा प्रेराय छे ते भक्ति छे. आ भक्ति
मात्र बहारना ठाठमाठमां के नृत्य – गानादिमां पूरी थती नथी, पण आ भक्ति
साथेनुं ज्ञान, ज्ञानीना अंतरमां ऊंडुं ऊतरीने तेना गुणनो पत्तो मेळवे छे ने
पोतामां तेवा गुण प्रगट करीने ज ते जंपे छे. आ रीते गुणवडे गुणवंत –
ज्ञानीनी सुंदर भक्ति थाय छे. कुन्दकुन्दप्रभुए समयसारनी ३१ मी गाथामां
आवी भक्ति बतावी छे. ज्ञानबळे, अहीं भरतक्षेत्रमां बेठाबेठा पण
सिद्धभगवंतोनी के विदेहक्षेत्रना करोडो – अबजो ज्ञानीओनी भक्ति आपणे
करी शकीए...... आ गुणभक्तिने क्षेत्रनुं अंतर नडी शकतुं नथी.