Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
रहस्यभूत आत्मानुं भणतर भणी लीधुं, –तेनी अनुभूति करी लीधी, तेणे आखा
सर्वज्ञ परमात्मा पोतामां प्राप्त करी लीधा. –ते भक्त छे, ते आराधक छे, ते मोक्षनो
पंथी छे. अरे, आत्मअनुभूतिना महिमानी लोकोने खबर नथी, अने बहारना शास्त्र
भणतर वगेरे परलक्षी जाणपणामां तेओ अटकी जाय छे. पण शास्त्रोए कहेलुं
चैतन्यतत्त्व अंतरमां बिराजी रह्युं छे–तेनी सन्मुखता कर्यां वगर शास्त्रनुं रहस्य पण
समजाय नहि.
श्रीगुरुना सान्निध्यथी जे आनंदमय स्वानुभूति प्रगटी ते अद्भुत छे; अहा,
अंदर शांतरसना शेरडा छूटे छे. आवी अनुभूति ते ज निर्मळ सुखकारी धर्म छे. आवो
धर्म में प्राप्त कर्यो छे अने आवा आनंदमय आत्मतत्त्वना ज्ञानवडे समस्तमोहनो
महिमा में नष्ट कर्यो छे; ज्ञानतत्त्वनो अगाध महिमा प्रगट्यो त्यां मोहनो महिमा छूटी
गयो. आ रीते श्रीगुरुनी समीपतामां मारा परमतत्त्वने प्राप्त करीने, हवे हुं तेमां ज
लीन थाउं छुं. बधा तीर्थंकरोए आम कर्युं छे ने हुं पण ते तीर्थंकरोना मार्गे जाउं छुं. –
आवी दशानुं नाम परमभक्ति छे. आ भक्ति भवने छेदनारी छे ने आ भक्तिमां
चैतन्यना आनंदरसना फूवारा ऊछळे छे.
आ शरीर तो मळ–मूत्रनो पिंडलो, अने चैतन्यप्रभु आत्मा तो सुंदर
आनंदरसझरता अनंतगुणनो पिंड–आवा सुंदर आनंदतत्त्वमां जेनुं चित्त लोलुप थयुं
छे– तेमां ज उत्सुक थईने लाग्युं छे तेनुं चित्त ईंद्रियविषयोमां लोलुप रहेतुं नथी. अहा,
चैतन्यना असंख्य अंगमांथी तो आनंदरस झरे छे, ने शरीरना अंगोमांथी तो मळ–
मूत्रादि दुर्गंध झरे छे. जुओ तो खरा, चैतन्यतत्त्वनी सुंदरता! आनंदझरतुं आ उत्तम
तत्त्व जगतमां सौथी सुंदर छे, तेनी सन्मुख थतां पर्यायमां आनंद झरे छे. अरे जीव!
एकवार बाह्य विषयोनी लोलुपता छोडीने अंदर आवा सुंदर आनंदमय महान तत्त्वनो
लोलुप था... तेने जाणवानी उत्सुकता कर. आवा तत्त्वने जाणीने तेनी अपूर्व भावनाथी
मोक्षसुखनो स्वाद तने अहीं ज अनुभवाशे.
आहा! जुओ आ पंचमआराना संतनी वाणी! ए तो लाव्या छे विदेहनी
वाणी! एना भाव अंदर लक्षमां ल्ये तो आत्माने ऊंचो करी द्ये, ने रागना
विकल्पथी छूटो पडीने चैतन्यनी वीतरागी शांतिनुं वेदन थई जाय, –एवी अपूर्व
आ वीतरागी संतोनी वाणी छे. जे सांभळतां पण मुमुक्षुना रोम–रोम हर्षथी
उल्लसे छे, तेना अतीन्द्रियअनुभवना आनंदनी तो शी वात!