: १० : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
हे भाई! जिनशासनमां भगवाने कहेला आवा स्वाश्रितमार्गने तुं ओळख. अने
आनाथी विपरीत एवा समस्त पराश्रित भावोनी श्रद्धा छोड. राग भले शुभ हो
तोपण ते पराश्रित भाव छे; आत्माना स्वभावना अवलंबने कांई रागनी उत्पत्ति
थती नथी माटे कहे छे के अहो! जिननाथना मार्गमां स्वाधीन–आत्मवश एवा
वीतरागभावथी ज जीव शोभे छे. सम्यग्दर्शनादि वीतरागभाव विनानो जीव
जिनमार्गमां शोभतो नथी. परना आश्रये कल्याण माननारा जीवो तो परवश छे, ते
परवश जीवो तो नोकर जेवा छे, स्वाधीन जिनमार्गमां ते शोभता नथी.
मोक्षनो मार्ग तो परनी अपेक्षा वगरनो, अत्यंत निरपेक्ष, संपूर्ण अंतर्मुख छे,
शुद्धद्रव्यना ज आश्रये आनंदमय मोक्षमार्ग छे. हे जीव! आवा साचा मोक्षमार्गनुं
स्वरूप नक्की करीने तुं तरत ज स्वद्रव्यमां अंतर्मुख था... ने स्वद्रव्यनी अनुभूति कर.
मोक्षमार्ग एटले स्वद्रव्यनी अनुभूति; स्वद्रव्यनी अनुभूति तो स्वद्रव्यना ज आश्रये
थाय ने! कांई परना आश्रये स्वद्रव्यनी अनुभूति थाय? स्वाश्रित स्वात्मलब्धिरूप
आवो मोक्षमार्ग तीर्थंकरोए साध्यो अने वीतराग संतोए परमागममां ते मार्ग प्रसिद्ध
कर्यो छे. – आजे पण धर्मीना अंतरमां ते मार्ग जयवंत वर्ते छे; ने एवो जीव धर्मात्मा–
संतोनी मंडळीमां शोभे छे.
वाह, मारो आत्मा ज मारा अनंत स्वभावथी पूरा सामर्थ्यवाळो छे, –तेना ज
अनुभवथी मोक्षनो परम आनंद सधाय छे. –आम स्वद्रव्य तरफ झुकीने पोताना
आत्मामां जेणे पूर्णता देखी ते पोताना सिवाय बीजानो आशरो केम ल्ये? जे बीजाने
आश्रये मोक्षनुं साधन करवा मांगे छे तेणे पोताना पूर्ण स्वभावने जाण्यो ज नथी.
पोताना पूर्ण स्वभावने जे जाणे ते बीजा पासे भीख मागे नहि, रागमां मोक्षमार्ग
माने नहीं. शुद्ध आनंदनी उपलब्धिरूप मोक्ष, तेनो उपाय शुद्धआत्माना ज अवलंबने
छे, – एम स्वाश्रित जिनमार्गने पामीने हे जीव! हे भव्यशार्दूल! तुं शीघ्र तारी मतिने
तारा आत्मामां जोड. धर्मात्माओनी मोक्षमंडळीमां तो आवा स्ववश धर्मात्माओ ज
शोभे छे, परवश गुलाम तेमां शोभता नथी. अहो, आवो अलौकिक जिनमार्ग! तेनी
प्राप्तिथी धर्मात्मा शोभे छे.
“अवश” एटले जे बीजाने वश नथी, आत्माने ज वश छे, –ते जीव मोक्ष
माटेनी आवश्यक क्रिया करनारो छे. चैतन्यतत्त्वमां स्वाधीन द्रष्टि करतां ज
अनंतभवनो अभाय थई गयो; अने पछी तेमां लीन थतां तो साक्षात् अशरीरीपणुं
थाय छे.
शुद्धोपयोग वडे आत्मा स्वयं धर्म थयो, धर्म थतां आत्मामां सर्वत्र आनंद