: भाद्रपद र४९९ : आत्मधर्म : ११ :
रस प्रसरी गयो. आवी अपूर्व स्वाधीन सुखदशा शुद्धोपयोग वडे ज थाय छे, ए
सिवाय रागादि कोई भावो वडे आवी दशा थती नथी. –आवी दशा थतांवेंत देहातीत
चैतन्यभाव अहीं ज अनुभवाय छे, ने तेना फळमां देहातीत–अशरीरी सिद्धपद प्रगटे
छे. धर्मात्मा कहे छे के अहो! मारा आत्माना आश्रये आवो परम निर्वाणमार्ग प्रगट
करीने, हुं आत्माना कोई अद्भुत निर्विकल्प आनंदने अनुभवुं छुं.
जुओ, आ धर्मीना आवश्यकनुं अलौकिक वर्णन! आत्मा सिवाय बीजा कोईने
जे वश नथी ते अवश छे; एवा जीवनुं जे स्वाश्रित कार्य छे ते मोक्ष माटेनुं आवश्यक
छे. – आ ज युक्तिथी अने आ ज उपायथी अशरीरी थवाय छे.
अहो, स्वाश्रये जे कार्य थाय, जेमां परनो आश्रय न होय, ते तो शुद्धभाव ज
होय, स्वाश्रये कांई रागनी उत्पत्ति न थाय. शुभराग पण कांई आत्माना आश्रये न
थाय, ते पण परना आश्रये थाय छे एटले ते परवश भाव छे, ते मोक्षनो उपाय नथी.
मोक्षनो उपाय तो आत्माना आश्रये थतुं शुद्धभावरूप कार्य ज छे. तेनाथी ज जीव
अवयव रहित शरीररहित सिद्धपद पामे छे.
जुओ, आ समयसार तो अशरीरी चैतन्यभावथी भरेलुं छे. आत्माना
चिदानंदस्वभावना आश्रये जे कोई सम्यक्त्वादिभाव प्रगट्या ते बधाय अतीन्द्रिय
अशरीरी छे.
जे जीव स्वहितमां लीन होय ते पोताना शुद्ध जीवास्तिकाय सिवाय बीजाने वश
थाय नहि, शुभरागने वश थाय नहि, पुण्यने वश थाय नहि, संयोगने वश थाय नहि.
अरे, बहिर्मुखवृत्तिमां तो परनी वशता छे, पराधीनतामां तो सुख क्यांथी होय?
स्वाधीन चैतन्यतत्त्व पोते पोतामां ज पूरुं छे, तेमां अंतर्मुखवृत्तिने जगतमां बीजा
कोईनी अपेक्षा नथी, तेमां ज अतीन्द्रिय स्वाधीन सुख छे, ने ते ज शरीर रहित
थवानी युक्ति छे, ते ज मोक्षनो उपाय छे.
अरे, मोक्ष माटे आवुं काम करवा जेवुं छे–एम एकवार निर्णय तो करो! एवो
निर्णय करतां परभावोथी छूटो पडीने अंतरना चैतन्यस्वभावमां उपयोग वळी जाय
छे, ने स्वाधीन एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप कार्य प्रगटे छे; ते ज मोक्ष माटेनुं
आवश्यक कार्य छे, ते ज मुमुक्षुए नियमथी चोक्कस करवा जेवुं कार्य छे.
भाई, मोक्षमाटेनुं जरूरी कार्य तारा चैतन्यना असंख्य प्रदेशोमां ज थाय छे,
बीजे क्यांय थतुं नथी; तेथी ते तारुं स्ववश कार्य छे, ते अन्य वश नथी. सम्यग्दर्शन
पण तारा असंख्य प्रदेशी चैतन्यमां थाय छे, अतीन्द्रियआनंद तेमां प्रसरेलो छे.