Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद र४९९ : आत्मधर्म : १९ :
कहो, आत्मानी आराधना कहो के रत्नत्रय कहो; आवी दशा जेणे प्रगट करी ते
मुनि अने ते श्रावक निरंतर भक्त छे–भक्त छे, क्षणेक्षणे ते आत्माना
सिद्धपदने साधी ज रह्या छे.
(२६)
सिद्धभगवंतो ईन्द्रियोनो विषय नथी, तेओ अतीन्द्रिय–अशरीरी थया छे.
छद्मस्थना ज्ञानमां तेओ प्रत्यक्ष नथी, परोक्ष छे. साधक जीव पोताना
आत्माने स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष करे छे ते परमार्थ सिद्धभक्ति छे. अने
बहारमां सिद्धभगवंतो तरफ लक्ष जाय–ते परोक्ष छे; तेथी ते व्यवहारभक्ति
परोक्ष छे.
(२७)
अहो, सिद्धभगवंतो जगतमां सौथी श्रेष्ठ छे; तेओ प्रसिद्ध छे. आवा
सिद्धभगवंतोना गुणने ओळखीने, तेमना जेवा पोताना कारणपरमात्मतत्त्वनी
भावनारूप अभेदरत्नत्रयपरिणति, ते आत्मानुं परमार्थवात्सल्य छे, तेमां
आत्मानी रक्षा छे. अहो, आवी अभेदरत्नत्रयपरिणति वडे आत्माने साधनारा
७०० मुनिवरोनी रक्षानो आजे दिवस छे. (श्रावण पूर्णिमा)
(२८)
जेनाथी निजआत्मानी प्राप्ति थाय, आत्माना आनंदरूपी अमृतनो जेमां स्वाद
आवे, –एनुं नाम निजपरमात्मानी भक्ति छे. रागनो स्वाद ए कांई
परमात्मानी भक्ति नथी; अंदर पोताना परमात्मतत्त्व तरफ मुख करीने तेमांथी
आनंदरस पीवो ते निजपरमात्मानी भक्ति छे.
(२९)
निर्वाणभक्ति करवा माटे आत्माने क्यां स्थापवो? के राग वगरना शुद्ध
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग–पर्यायमां आत्माने स्थापतां परमात्माना आनंदना
घूंटडा पीवाय छे, ते ज मुक्तिनी परमभक्ति छे. परमात्मानी भक्ति कहो के
मोक्षनी भक्ति कहो, के रत्नत्रयनी आराधना कहो के आनंदरसनो अनुभव
कहो, –बधुं आमां समाय छे.
(३०)
द्रव्यमां पर्यायने स्थापवी एम कहो, के पर्यायमां द्रव्यने स्थापवुं–एम कहो, –ते
बंने एक ज छे; केमके अंदरनी अनुभूतिमां ‘आ द्रव्यने आ पर्याय’ एवो भेद
क्यां छे? त्यां तो अभेदअनुभूतिनो आनंद छे. समयसारमां ‘दर्शन–ज्ञान–
चारित्र–पर्यायमां स्थित आत्माने स्वसमय कह्यो; तेमज ‘तुं स्थाप निजने
मोक्षपंथे’ एम कह्युं. ए रीते निर्मळ रत्नत्रयरूप अभेदपरिणतिमां आत्माने
स्थापवो ते ज परमात्मानी परमभक्ति छे. तेमां राग नथी, तेमां आनंदना
अमृतरस पीवाय छे.
(३१)