
मुनि अने ते श्रावक निरंतर भक्त छे–भक्त छे, क्षणेक्षणे ते आत्माना
सिद्धपदने साधी ज रह्या छे.
आत्माने स्वसंवेदनमां प्रत्यक्ष करे छे ते परमार्थ सिद्धभक्ति छे. अने
बहारमां सिद्धभगवंतो तरफ लक्ष जाय–ते परोक्ष छे; तेथी ते व्यवहारभक्ति
परोक्ष छे.
भावनारूप अभेदरत्नत्रयपरिणति, ते आत्मानुं परमार्थवात्सल्य छे, तेमां
आत्मानी रक्षा छे. अहो, आवी अभेदरत्नत्रयपरिणति वडे आत्माने साधनारा
७०० मुनिवरोनी रक्षानो आजे दिवस छे. (श्रावण पूर्णिमा)
आवे, –एनुं नाम निजपरमात्मानी भक्ति छे. रागनो स्वाद ए कांई
परमात्मानी भक्ति नथी; अंदर पोताना परमात्मतत्त्व तरफ मुख करीने तेमांथी
आनंदरस पीवो ते निजपरमात्मानी भक्ति छे.
घूंटडा पीवाय छे, ते ज मुक्तिनी परमभक्ति छे. परमात्मानी भक्ति कहो के
मोक्षनी भक्ति कहो, के रत्नत्रयनी आराधना कहो के आनंदरसनो अनुभव
कहो, –बधुं आमां समाय छे.
बंने एक ज छे; केमके अंदरनी अनुभूतिमां ‘आ द्रव्यने आ पर्याय’ एवो भेद
क्यां छे? त्यां तो अभेदअनुभूतिनो आनंद छे. समयसारमां ‘दर्शन–ज्ञान–
चारित्र–पर्यायमां स्थित आत्माने स्वसमय कह्यो; तेमज ‘तुं स्थाप निजने
मोक्षपंथे’ एम कह्युं. ए रीते निर्मळ रत्नत्रयरूप अभेदपरिणतिमां आत्माने
स्थापवो ते ज परमात्मानी परमभक्ति छे. तेमां राग नथी, तेमां आनंदना
अमृतरस पीवाय छे.