Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
येलो आत्मा अति आसन्नभव्य छे; तेनो अति अपूर्व वीतरागरत्नत्रयरूप
भाव ते ज मोक्षनी अपूर्व भक्ति छे.
(४४)
अनंतकाळमां पूर्वे कदी नहि करेली एवी अपूर्व शांति केम थाय तेनी आ वात
छे. पोतानो आत्मा परम समतारसस्वरूप छे, तेमां चैतन्यना आनंदनी मोज
छे. –तेमां अंतर्मुख थतां आनंदमय मोक्षमार्ग प्रगटे छे. तेमां बहारनुं कोई
अवलंबन नथी.
(४प)
बहारना अवलंबने अनंतवार जे करी चुक्यो छतां जेमां शांति न मळी तेनाथी
जुदी जातनी कोई अपूर्व आ वात छे, चैतन्यना समभावरूपी अमृतनी आ
वात छे; तेमां अशुभ के शुभ सर्व विकल्पनो अभाव छे, ने निर्विकल्प
आनंदमय समरस झरे छे. –आवो वीतरागनो मार्ग छे, ने आवी वीतराग
मार्गनी (रत्नत्रयनी) भक्ति छे.
(४६)
अहा, सम्यग्दर्शनमां ने सम्यग्ज्ञानमां तो आत्माना परम आनंदनुं वेदन छे.
ते ज रागना अभावरूप भक्ति छे. आवी भक्ति गृहस्थ–श्रावकने पण
होय छे.
(४७)
सम्यग्द्रष्टिने पोतानी चैतन्यजात केवी छे तेनुं ज्ञान छे. पूर्वे पण मारो आत्मा
आवो हतो–एम चैतन्यजातिनुं त्रणेकाळनुं ज्ञान धर्मीने वर्ते छे. पूर्वनो भव
क््यां हतो– ते क्षेत्रादि भले याद आवे के न आवे पण वर्तमान
स्वसन्मुखपर्यायना बळे चैतन्यजातिनुं पूर्वनुं ने भविष्यनुं पण ज्ञान करवानी
ताकात साधकने छे, –आ पारमार्थिक जातिस्मरणज्ञान छे, ने ते बधा
सम्यक्द्रष्टिने होय छे. आत्मानी त्रिकाळिकताना ज्ञान वगर सम्यग्दर्शन होई
शकतुं नथी.
(४८)
मारी चैतन्यजातमां पूर्वनी अनंत पर्यायो थई, ने भविष्यमां अनंत पर्यायो
थशे–ते त्रणेकाळनी चैतन्यजातिने धर्मी जीव जाणी ल्ये छे, ते परमार्थरूप
जातिस्मरण छे. आवा स्वजातिना स्मरण वगर सम्यग्दर्शन थाय नहीं.
भवसंबंधी जातिस्मरण ते जुदी जात छे, ने आ चैतन्यनी स्वजातनुं स्मरण ते
अपूर्व सम्यक्त्वादिरूप महा शांतिथी भरेलुं छे.
(४९)
द्रव्यनी सन्मुख थईने तेने जाणतां, ते द्रव्यनी स्वजातनी त्रणेकाळनी पर्यायनुं
पण ज्ञान तेमां आवी गयुं; त्रणेकाळने एक काळमां ते कळी ल्ये छे. (५०)