Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
शुद्धात्मतत्त्वनो उपदेश मळ्‌यो ते अनुसार आत्माना स्वसंवेदन वडे
आत्माना महा आनंदनो अपूर्व वैभव अमने प्रगट्यो छे. – एम धर्मी
निःशंक जाणे छे. तेणे पोताना आत्माने आवी स्वानुभव–पर्यायमां जोडी दीधो
छे, ते ज परम योगभक्ति छे. तेना वडे प्रसिद्ध एवी आत्मलब्धि (मुक्ति)
पमाय छे.
(६६)
अहा, जुओ तो खरा आ भक्ति! अरे जीव! तने आवी परम भक्ति करतां
कदी आवडयुं नथी; बहारनी भक्तिना रागमां संतोष मानीने तुं रोकायो, पण
ज्ञानीना गुणने ओळखीने तेवो आत्मभाव तें पोतामां प्रगट न कर्यो एटले
तद्गुणनी लब्धि तने न थई. अहीं तो आत्मामां उपयोगने जोडीने
आत्मभावरूप भक्ति–के जे मुक्तिनुं कारण छे तेनी वात छे. भगवंतो आवी
भक्ति वडे मोक्ष पाम्या–एम जाणीने तुं पण आवी भक्ति कर.
(६७)
आत्माना यथार्थस्वरूपमां उपयोगनुं जोडाण ते परम भक्ति छे. जेणे तीर्थंकरोने
गणधरादिना उपदेश अनुसार यथार्थ तत्त्वनो निर्णय कर्यो होय, एटले
जैनमार्ग अनुसार आत्मानुं स्वरूप विपरीतता रहित जाण्युं होय–ते ज तेमां
उपयोगने जोडी शके, ने तेने मोक्षना कारणरूप वीतरागभक्ति होय. (६८)
अहो, आवी भक्तिवाळा धर्मीजीवो कहे छे के अमे तो भगवान तीर्थंकरदेवना
उपजीवक छीए, अमे तीर्थंकरना चरणमां वसनारा छीए, अमे तीर्थंकरनी सेवा
करनार तेमना सेवक छीए. वाह रे वाह! जुओ आ भगवाननो भक्त! आने
जैन कहेवाय.
(६९)
भरतक्षेत्रना भक्तो, उपयोगने अंतरमां जोडीने कहे छे के अहो भगवान! अमे
आपना चरणमां वसनारा आपना उपजीवको छीए; एटले आपे जे मार्ग
बताव्यो, आपे जे शुद्धचैतन्यतत्त्व बताव्युं तेनो आश्रय करीने अमे जीवनारा
छीए. रागनुं जीवन ए अमारुं जीवन नहीं. चैतन्यना आश्रये वीतरागी
रत्नत्रयरूप जीवनए ज अमारुं जीवन छे. आवुं जीवन जीवनारो भगवाननो
दास ते जैन छे; ते भक्त छे–भक्त छे.
(७०)
श्री गणधरदेवथी मांडीने अविरत सम्यग्द्रष्टि सुधीना बधा धर्मात्माओ ते
तीर्थंकर प्रभुना उपजीवको जैनो छे. (७१)