
आत्माना महा आनंदनो अपूर्व वैभव अमने प्रगट्यो छे. – एम धर्मी
निःशंक जाणे छे. तेणे पोताना आत्माने आवी स्वानुभव–पर्यायमां जोडी दीधो
छे, ते ज परम योगभक्ति छे. तेना वडे प्रसिद्ध एवी आत्मलब्धि (मुक्ति)
पमाय छे.
कदी आवडयुं नथी; बहारनी भक्तिना रागमां संतोष मानीने तुं रोकायो, पण
ज्ञानीना गुणने ओळखीने तेवो आत्मभाव तें पोतामां प्रगट न कर्यो एटले
तद्गुणनी लब्धि तने न थई. अहीं तो आत्मामां उपयोगने जोडीने
आत्मभावरूप भक्ति–के जे मुक्तिनुं कारण छे तेनी वात छे. भगवंतो आवी
भक्ति वडे मोक्ष पाम्या–एम जाणीने तुं पण आवी भक्ति कर.
गणधरादिना उपदेश अनुसार यथार्थ तत्त्वनो निर्णय कर्यो होय, एटले
जैनमार्ग अनुसार आत्मानुं स्वरूप विपरीतता रहित जाण्युं होय–ते ज तेमां
उपयोगने जोडी शके, ने तेने मोक्षना कारणरूप वीतरागभक्ति होय. (६८)
उपजीवक छीए, अमे तीर्थंकरना चरणमां वसनारा छीए, अमे तीर्थंकरनी सेवा
करनार तेमना सेवक छीए. वाह रे वाह! जुओ आ भगवाननो भक्त! आने
जैन कहेवाय.
आपना चरणमां वसनारा आपना उपजीवको छीए; एटले आपे जे मार्ग
बताव्यो, आपे जे शुद्धचैतन्यतत्त्व बताव्युं तेनो आश्रय करीने अमे जीवनारा
छीए. रागनुं जीवन ए अमारुं जीवन नहीं. चैतन्यना आश्रये वीतरागी
रत्नत्रयरूप जीवनए ज अमारुं जीवन छे. आवुं जीवन जीवनारो भगवाननो
दास ते जैन छे; ते भक्त छे–भक्त छे.