Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद र४९९ : आत्मधर्म : २७ :
एक समयनी स्वसन्मुख पर्यायमां आखा आत्मानी कबुलात आवी जाय छे.
पर्यायमां ज्ञान–आनंदनो जे स्वाद स्वसन्मुखताथी आव्यो तेवा ज्ञान–आनंद–
रसनो समुद्र हुं छुं–एम गंभीर चैतन्यतत्त्व धर्मीनी अनुभूतिमां आवी
गयुं छे.
(७२)
ते धर्मीए स्वसन्मुख थईने पोतानी पर्यायमां चैतन्यप्रभुनी प्रतिष्ठा
करी छे. (७३)
अहा, आत्मा पोते पोताने स्वानुभूतिथी कबुल करीने परमस्वरूपे पर्यायमां
प्रसिद्ध थयो पछी त्यां भव केम रहे? ते निःशंक जाणे छे के अमारी पर्यायमां
परमात्मा जाहेर थया छे, –प्रसिद्ध थया छे–प्रगट थया छे. परमात्मा अमारी
पर्यायमां बिराज्यां छे; तेमां हवे राग के भव रही शके नहीं. अमे जिननाथने
अनुसरनारा जैन थया छीए. आवा जैनमार्ग सिवाय बीजा कोई मार्गनी
मान्यता ते मिथ्यात्व छे.
(७४)
स्वसन्मुख थईने अमे जैनमार्गमां आव्या, हवे अमारी पर्यायमां भवनो भाव
रहे नहीं. परिणति तो रागथी छूटीने चैतन्यप्रभु साथे जोडाई गई– त्यां हवे
भवदुःख केवा? ने अवतार केवा? ए तो आनंद करतो–करतो जैनमार्गे
मोक्षपुरीमां चाल्यो जाय छे. ते रत्नत्रयनो भक्त छे–भक्त छे... मोक्षना डंका
तेनी पर्यायमां वागी रह्या छे.
(७५)
अहो, गणधरादि जैनभगवंतोए जे जीवादि तत्त्वो कह्यां अने तेमां जे चैतन्य
परमतत्त्व कह्युं, ते चैतन्यतत्त्वने जेणे पोतानी स्वानुभूतिमां प्रसिद्ध कर्युं ते जैन
थयो, तेने भवनो अभाव थई गयो. भवनो अभाव करनारुं आनंदमय
चैतन्यतत्त्व तेनी पर्यायमां प्रसिद्ध वर्ते छे. आवो जीव भगवाननो खरो भक्त
छे. तेने रत्नत्रस्वरूप निर्वाणभक्ति निरंतर वर्ते छे.
(७६)
निश्चय भक्तिनो संबंध पोताना आत्मा साथे छे. आत्मसन्मुखतारूप आ
भक्ति ते ज उत्तम भक्ति छे. आ भक्तिमां सर्व आत्मप्रदेशे अत्यंत आनंदरूपी
अमृतना ऊभरा वहे छे, ने तेनाथी आत्मा परितृप्त थाय छे. सर्वे जिनवरो
आवी भक्ति करीने मुक्ति पाम्या. माटे हे भव्य महाजनो! तमे पण आत्माने
वीतरागी सुख देनारी आवी उत्तम भक्ति करो..
(७७)