Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
आ भारतवर्षमां ऋषभदेवथी मांडीने महावीरदेव सुधी र४ तीर्थंकर जिनवरो
थया, ने बीजा पण अनंता जिनवरो भूतकाळमां थया ने मोक्षसुख पाम्या; ते
बधा जिनवरो जे भक्ति करीने मोक्षसुख पाम्या ते भक्तिनो संबंध पोताना
निज आत्मा साथे ज हतो. शुद्धउपयोगने निजात्मामां जोडीने तेमणे आत्मानी
परमभक्ति करी, ने तेना वडे मोक्षसुख पामीने, वीतरागी आनंदमय
परमसुखना वेदनथी तेओ परितृप्त थया. आवुं स्वरूप जाणीने हे मुमुक्षु! तुं
पण तारा उपयोगने शुद्धआत्मामां जोडीने आवी भक्ति कर.
(७८)
अहा, शुद्धात्मामां उपयोगनी एकाग्रतारूप आ परम योगभक्तिमां आत्माना
असंख्यप्रदेश आनंदरसमां तरबोळ थई जाय छे. ए आनंदना वेदनथी थती
तृप्तिनी शी वात! ए वीतरागसुखनी शी वात!
(७९)
आत्मानो शुद्धस्वभाव त्रिकाळ छे ते भूतार्थ छे–सत्यार्थ छे ने तेमां अभेद
थयेली शुद्धपर्याय ते पण भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; रागादिभावो अभूतार्थ छे.
पर्याये अंतर्मुख थईने ज्यां भूतार्थ भगवाननी समीपता करीने तेमां जोडाण
कर्युं त्यां ते पर्यायमां वीतरागी आनंदना फूवारा ऊछळ्‌या.
(८०)
जेने भवछेदक निर्वाणभक्ति प्रगटी छे, एटले के जेने रत्नत्रयनी आराधना
वर्ते छे एवा धर्मात्मा कहे छे के अहो! श्रीगुरुना सान्निध्यमां निर्मळ सुखकारी
धर्म अमे प्राप्त कर्यो छे, अने चैतन्यना अगाध महिमाने जाणनारा ज्ञानवडे
समस्तमोहनो महिमा नष्ट थई गयो छे. –आवो हुं रागद्वेषरहित शुद्ध
ध्यान वडे शांतचित्तथी आनंदमय निजतत्त्वमां ठरुं छुं, निजपरमात्मामां लीन
थाउं छुं.
(८१)
जुओ, श्रीगुरुना सान्निध्यनुं फळ शुं? के निर्मळ सुखकारी धर्मनी प्राप्ति थई ते
श्रीगुरुना सान्निध्यनुं फळ छे. श्रीगुरुनो उपदेश पण ए ज छे के रागथी पार
चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति करवी. जेणे आवी अनुभूति करी तेणे ज खरेखर
श्रीगुरुने ओळखीने तेमनुं सान्निध्य सेव्युं छे. श्रीगुरुना उपदेशना साररूप
आनंदमय आत्मअनुभूति तेणे प्राप्त करी लीधी.
(८२)
मात्र शुभराग ते कांई श्रीगुरुना उपदेशनो सार न हतो. जे रागमां अटक्यो छे
ने रागथी पार चैतन्यथी समीपता नथी करतो, ते श्रीगुरुनी नजीक नथी