Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद र४९९ : आत्मधर्म : २९ :
पण दूर छे. चैतन्यनी समीपता करीने जेणे निर्मळ सुखकारी धर्म प्राप्त कर्यो
तेणे ज खरेखर श्रीगुरुनी समीपता करी, अने मोहना जोरने ज्ञानबळथी
नष्ट कर्युं.
(८३)
एकला शास्त्रथी नहि पण ज्ञानी गुरुना सान्निध्यथी आत्मतत्त्वने जाणतां
निर्मळ सुखरूप धर्म प्राप्त थाय छे. सम्यग्दर्शनादि वीतरागपरिणति ते सुखरूप
धर्म छे, तेनी प्राप्ति चैतन्यस्वभावमां सन्मुखताथी थाय छे. अंतरमां पोताना
परमतत्त्वनी समीपता छे ने निमित्तरूपे गुरुनी समीपता छे.
(८४)
गुरु केवा छे? के जेओ चैतन्यतत्त्वनो महिमा बतावीने तेमां द्रष्टि करवानुं कहे
छे. श्रीगुरुनी समीपताथी आवा आत्मतत्त्वनी द्रष्टि करीने, ज्ञानना महिमावडे
समस्त मोहनो महिमा नष्ट करी नाख्यो छे. चैतन्यनो महिमा प्रगट्यो त्यां
मोहनो महिमा तूट्यो. हजी सम्यग्दर्शन थतां वेंत समस्त मोह नष्ट न थई
जाय, पण ते मोहनो महिमा तो नष्ट थई गयो छे, तेनुं अनंतु जोर तूटी
गयुं छे.
(८५)
श्रीगुरुनी समीपमां चैतन्यतत्त्व सांभळीने हे भव्य! तुं अंतरतत्त्वनी समीपमां
जा... त्यां चैतन्यनो परम महिमा ज्ञानमां आवतां ज परभावनो महिमा छूटी
जशे. आवा तत्त्वने अंतरमां अनुभववुं ते श्रीगुरुना सान्निध्यमां करवानुं छे,
ते ज श्रीगुरुनी आज्ञा छे.
(८६)
हजी राग–द्वेष होवा छतां, धर्मीने सम्यग्दर्शनमां चैतन्यपरमेश्वरनी प्राप्ति थतां
तेना महिमामां ज्ञान लीन थयुं, ते ज्ञानधारा समस्त रागादि परभावोथी छूटी
पडी गई, तेमां आनंदकंद आत्मानो ज महिमा रह्यो. –आनुं नाम
निर्वाणमार्गनी
भक्ति छे. (८७)
अहो, श्रीगुरुए मने एम कह्युं के तुं तारा आनंदमय परमात्मतत्त्व पासे जा. ए
रीते श्रीगुरुना उपदेशथी परमात्मतत्त्व पासे जतां (अंतर्मुख परिणति करतां)
आनंदकारी धर्मदशा मने प्रगटी, तेमां हवे रागादिनो महिमा रही शके नहीं. जेने
परनो के शुभरागनो पण महिमा लागे तेने पोताना वीतरागी आनंदमय
तत्त्वनो महिमा आवतो नथी ने सुखकारीधर्म तेने प्रगटतो नथी, ते तो रागना
दुःखने
अनुभवे छे. (८८)