
तेणे ज खरेखर श्रीगुरुनी समीपता करी, अने मोहना जोरने ज्ञानबळथी
नष्ट कर्युं.
निर्मळ सुखरूप धर्म प्राप्त थाय छे. सम्यग्दर्शनादि वीतरागपरिणति ते सुखरूप
धर्म छे, तेनी प्राप्ति चैतन्यस्वभावमां सन्मुखताथी थाय छे. अंतरमां पोताना
परमतत्त्वनी समीपता छे ने निमित्तरूपे गुरुनी समीपता छे.
छे. श्रीगुरुनी समीपताथी आवा आत्मतत्त्वनी द्रष्टि करीने, ज्ञानना महिमावडे
समस्त मोहनो महिमा नष्ट करी नाख्यो छे. चैतन्यनो महिमा प्रगट्यो त्यां
मोहनो महिमा तूट्यो. हजी सम्यग्दर्शन थतां वेंत समस्त मोह नष्ट न थई
जाय, पण ते मोहनो महिमा तो नष्ट थई गयो छे, तेनुं अनंतु जोर तूटी
गयुं छे.
जा... त्यां चैतन्यनो परम महिमा ज्ञानमां आवतां ज परभावनो महिमा छूटी
जशे. आवा तत्त्वने अंतरमां अनुभववुं ते श्रीगुरुना सान्निध्यमां करवानुं छे,
ते ज श्रीगुरुनी आज्ञा छे.
तेना महिमामां ज्ञान लीन थयुं, ते ज्ञानधारा समस्त रागादि परभावोथी छूटी
पडी गई, तेमां आनंदकंद आत्मानो ज महिमा रह्यो. –आनुं नाम
निर्वाणमार्गनी
रीते श्रीगुरुना उपदेशथी परमात्मतत्त्व पासे जतां (अंतर्मुख परिणति करतां)
आनंदकारी धर्मदशा मने प्रगटी, तेमां हवे रागादिनो महिमा रही शके नहीं. जेने
परनो के शुभरागनो पण महिमा लागे तेने पोताना वीतरागी आनंदमय
तत्त्वनो महिमा आवतो नथी ने सुखकारीधर्म तेने प्रगटतो नथी, ते तो रागना
दुःखने