
थयुं छे–तेमां ज उत्सुक थईने लाग्युं छे तेनुं चित्त ईन्द्रियविषयोमां लोलुप
रहेतुं नथी.
सुंदरता! आनंदझरतुं आ उत्तम तत्त्व जगतमां सौथी सुंदर छे, तेनी सन्मुख
थतां पर्यायमां आनंद झरे छे. अरे जीव! एकवार बाह्य विषयोनी लोलुपता
छोडीने अंदर आवा सुंदर आनंदमय महान तत्त्वनो लोलुप था... तेने
जाणवानी उत्सुकता कर. आवा तत्त्वने जाणीने तेनी अपूर्व भावनाथी
मोक्षसुखनो स्वाद तने अहीं ज अनुभवाशे.
वाणी! एना भाव अंदर लक्षमां ल्ये तो आत्माने ऊंचो करी द्ये, ने रागना
विकल्पथी छूटो पडीने चैतन्यनी वीतरागी शांतिनुं वेदन थई जाय, –एवी
अपूर्व आ वीतरागी संतोनी वाणी छे. जे सांभळतां पण मुमुक्षुना रोम–रोम
हर्षथी उल्लसे छे, तेना अतीन्द्रियअनुभवना आनंदनी तो शी वात! (९४)
नथी; कागडो मोतीने छोडीने मांसने चूंथे छे तेम अज्ञानी चैतन्यना आनंदने
छोडीने रागने सेवे छे. अरे चैतन्यहंसला! तारा चारा तो आनंदनां होय,
राग–द्वेषनां चूंथणां तने न शोभे.
सुखने अनुभवनारा संतो जीवन्मुक्तिनी मोज माणे छे, बीजाने एनो स्वाद
आवी शकतो नथी.
रहेलुं नथी–आम सम्यग्द्रष्टि जीव स्वतत्त्वने ध्येय बनावीने ध्यावे छे ने तेना
परमसुखने वेदे छे; त्यां भवसंबंधी सुखनी वांछा तेने नथी. तेनुं चित्त तो
चैतन्यसुखमां ज चोंटेलुं छे, मोक्षसुख तरफ ज तेनुं मुख छे; ज्यां भवसुखनी
वांछा नथी त्यां तेना कारणरूप बहारना कोई अन्य पदार्थथी मारे