Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :
* स्वाश्रित–वीतरागमार्गनी श्रद्धा तो जरूर करजे. श्रद्धामां आ सिवाय बीजुं
विपरीत मानीश नहि; पराश्रितभावमां कल्याण मानीश नहीं. परमात्मतत्त्वनी
श्रद्धा राखीश तोपण तारो आराधकभाव चालु रहेशे, ने अल्पकाळे मोक्ष थशे.
* सम्यग्दर्शन ते पण धर्मीनुं आवश्यक कार्य छे. आवा सम्यग्दर्शन उपरांत जो
ध्यानमां एकाग्रतारूप सामायिकादि थई शके तो ते उत्तम छे, ते तो साक्षात्
मोक्षमार्ग छे; ने एवुं न थई शके तो सम्यक्त्वमां तो तुं जराय शिथिल थईश
नहि. विकल्प होय तेनी मीठाश करीश नहीं. तेनाथी भिन्न चैतन्यस्वरूपनी श्रद्धा
बराबर करजे.
* सहज ज्ञान–आनंदमय निजपरमात्मतत्त्वनी सन्मुख थईने जे निश्चल स्थिर
परिणाम थाय ते ज भवने छेदवा माटेनो कुहाडो छे, अंतरमां स्थिर थतां जे
शांत निष्क्रिय (एटले विकल्पनी क्रियाथी रहित) दशा थई ते ज परम
आवश्यक छे, तेनाथी सामायिकनी पूर्णता थाय छे एटले तेमां विकल्पनी
विषमता वगरनी परम शांति ने समता छे, ते मुमुक्षुने परम उपादेय छे–तेनुं
फळ निर्वाण छे. आ सिवाय बाह्य आवश्यकना जे विकल्पो छे ते तो
कोलाहलवाळा छे, तेनुं फळ तो अनुपादेय छे, तेमां शांति नथी, विकल्पमां तो
अशांति छे.
* शांति तो स्वाश्रितभावमां छे. जेटलो स्वाश्रय थाय तेटली ज शांति छे, तेटलो
ज निर्वाणमार्ग छे ने ते ज उपादेय छे. अंतरमां एकाग्रता थतां एक विकल्प
पण न ऊठे एवो पूर्ण स्वाश्रयभाव ते मोक्ष माटे मुनिओनुं परम
आवश्यक कार्य छे. ने श्रावक–धर्मात्माने पण निज परमात्मतत्त्वनी सम्यक्श्रद्धा,
तथा ज्ञानपूर्वक जेटले अंशे वीतरागभाव वर्ते छे तेटलुं ज आवश्यक छे; ते
सिवाय बीजा कोई रागादिभावो ते कांई धर्मीनुं आवश्यक नथी, ते मोक्षनो
मार्ग नथी.
* आज तो आवा धर्मने साधवानी मोसम एटले पर्युषण छे, मोक्षना मार्गनी
मोसम छे. अंतर्मुख आत्मतत्त्वनो जेणे आश्रय लीधो तेने आत्मामां सदाय
धर्मनी ज धीखती मोसम छे. अरे, तारा स्वभावनी सन्मुख थईने तुं अत्यारे
धर्मनी कमाणी करी ले. कमाणी माटे आ उत्तम अवसर छे.
* आत्माना गुणो आत्माना आधारे छे; आत्मानो कोई गुण कोई बीजाना आधारे