Atmadharma magazine - Ank 359
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: र : आत्मधर्म : भाद्रपद र४९९ :


श्रीगुरुना सान्निध्यमां रहेलो जीव शुं प्राप्त करे छे? अने
खरेखर श्रीगुरुनुं सान्निध्य कोणे कर्युं कहेवाय? ते वात अद्भुत
रीते गुरुदेव आ प्रवचनमां समजावे छे.
[नियमसार कळश र३४]
जेने भवछेदक निर्वाणभक्ति प्रगटी छे, एटले के जेने रत्नत्रयनी आराधना
वर्ते छे एवा धर्मात्मा कहे छे के अहो! श्री गुरुना सान्निध्यमां निर्मळ सुखकारी धर्म
अमे प्राप्त कर्यो छे, अने चैतन्यना अगाध महिमाने जाणनारा ज्ञानवडे समस्त मोहनो
महिमा नष्ट थई गयो छे. –आवो हुं रागद्वेषरहित शुद्ध ध्यान वडे शांतचित्तथी
आनंदमय निजतत्त्वमां ठरुं छुं, निजपरमात्मामां लीन थाउं छुं.
जुओ, श्रीगुरुना सान्निध्यनुं फळ शुं? के निर्मळ सुखकारी धर्मनी प्राप्ति थई ते
श्रीगुरुना सान्निध्यनुं फळ छे. श्रीगुरुनो उपदेश पण ए ज छे के रागथी पार
चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति करवी. जेणे आवी अनुभूति करी तेणे ज खरेखर श्रीगुरुने
ओळखीने तेमनुं सान्निध्य सेव्युं छे. श्रीगुरुना उपदेशना साररूप आनंदमय
आत्मअनुभूति तेणे प्राप्त करी लीधी.
मात्र शुभराग ते कांई श्रीगुरुना उपदेशनो सार न हतो. जे रागमां अटक्यो छे
ने रागथी पार चैतन्यनी समीपता नथी करतो, ते श्रीगुरुनी नजीक नथी पण दूर छे.
चैतन्यनी समीपता करीने जेणे निर्मळ सुखकारी धर्म प्राप्त कर्यो तेणे ज खरेखर
श्रीगुरुनी समीपता करी, अने मोहना जोरने ज्ञानबळथी नष्ट कर्युं.
एकला शास्त्रथी नहि पण ज्ञानी गुरुना सान्निध्यथी आत्मतत्त्वने जाणतां
निर्मळ सुखरूप धर्म प्राप्त थाय छे. सम्यग्दर्शनादि वीतरागपरिणति ते सुखरूप धर्म छे,
समीपता छे ने निमित्तरूपे गुरुनी समीपता छे.