चूक््यो, –पछी बीजा जीवनो घात तो थाय के न थाय, ते तेना प्रारब्धने आधीन छे.
पण आ जीवे तेनो घात विचार्यो त्यां तेने जीवहिंसानुं पाप लागी चूकयुं अने ते
आत्मघाती थई ज गयो. बीजाने हणवानो भाव करवो ते तो, धगधगतो लोखंडनो
गोळो बीजाने मारवा माटे हाथमां लेवा जेवुं छे, – एटले सामो तो मरे के न मरे पण
आ तो दाझे ज छे; तेम कषायवश जीव प्रथम तो पोते पोताने ज कषायअग्निवडे हणे
छे. कोईने तप तो निर्वाणनुं कारण थाय, परंतु अज्ञानने लीधे क्रोधी द्वीपायनने तो तप
पण दीर्घ संसारनुं कारण थयुं. क्रोधथी परनुं बूरुं करवा चाहनार जीव पोते दुःखनी
परंपरा भोगवे छे. माटे जीवे क्षमाभाव राखवो योग्य छे.
नगरी छ महिना सुधी सळगती रही... अरे, धिक्कार आवा क्रोधने के जे स्व–परनो
नाश करीने संसार वधारनारो छे. क्रोधवश जीव संसारमां घणां दुःखो भोगवे छे.
द्वीपायने भगवान नेमिनाथना वचनोनी श्रद्धाने ओळंगीने, भयंकर क्रोधवडे पोतानुं
बूरुं कर्युं, ने द्वारकानगरीने भस्म करी. आवा अज्ञानमय क्रोधने धिक्कार हो.
अनेक महारत्नो हता, हजारो देवो जेमनी सेवा करता ने हजारो राजा जेमने शिर
नमावता, –भरतक्षेत्रना एवा भूपति पुण्य खूटतां रत्नोथी रहित थई गया, नगरी ने
महेलो बधुं बळी गयुं, समस्त परिवारनो वियोग थई गयो, मात्र प्राण ए ज जेनो
परिवार छे, कोई देव पण एमनी द्वारकानगरीने बळती बचावी न शक््या; एवा ते
दक्षिण मथुरा तरफ चाल्या, जेमने पोते राज्यमांथी काढी मुकेला तेमना ज शरणे
जवानो वारो आव्यो. –रे संसार! पुण्य–पापना आवा विचित्र खेल देखीने हे जीव! तुं
पुण्यना भरोसे बेसी न रहीश, शीघ्र आत्महितने साधजे.
संसारमां के मोक्षमां, रे जीव! तुं तो एकलो.