ओळखाण कर एम संतोनो उपदेश छे. पोतानुं परमात्मस्वरूप अनंत शांतरसथी
भरेलुं छे, तेमां गुण–गुणीभेदने पण छोडीने अंतर्मुख सम्यग्दर्शननुं आराधन करवुं,
तेनी वात करी. हवे ते सम्यग्दर्शन–पूर्वक ज्ञाननी आराधनानी वात चाले छे.
गुणभेदनो विकल्प सम्यग्दर्शनमां के सम्यग्ज्ञानमां काम करतो नथी, सम्यग्दर्शनने ज्ञान
बंन्ने विकल्पोथी तो जुदा छे. अंतरमां रागथी जुदो पडीने चैतन्यस्वभावनी
अनुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान थाय छे. धर्मनी शरूआतमां ज आवा
सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान होय छे, अने अनंतानुबंधीना अभावथी प्रगटेलो
समयक्चारित्रनो अंश पण होय छे, तेने स्वरूपाचरण कहेवाय छे. चोथा गुणस्थानथी
जीवने आवी धर्मनी शरूआत थई गई अने ते मोक्षना मार्गमां चालवा मांड्यो.
छे. सम्यग्दर्शन होय त्यां साथे मुनिदशा होय ज–एवो नियम नथी, मुनिदशा तो होय के
न पण होय, परंतु सम्यग्ज्ञान तो साथे होय ज–एवो नियम छे. दर्शन सम्यक् थाय ने
ज्ञान मिथ्या रहे एम न बने. ज्ञान भले ओछुं होय पण ते सम्यक् होय छे. आम
सम्यग्दर्शन ने ज्ञान बंने साथे होवा छतां ते बंनेमां लक्षणभेद वगेरेथी अंतर पण छे,
एम जाणीने ज्ञाननुं पण आराधन करो. सम्यग्ज्ञान छे ते सम्यग्दर्शननी साथे ज शरू
थाय छे. पण सम्यग्दर्शननी साथे ज ते पूरुं थई जतुं नथी माटे तेनुं जुदुं
आराधन करवुं.
थई त्यां ज्ञान पण सम्यक् थयुं. जुओ, सम्यग्दर्शननुं कार्य सम्यग्ज्ञान कह्युं; तेमां
सम्यग्दर्शननी प्रधानता बताववा तेने कारण कह्युं. आ कारण–कार्यमां पहेलांं कारण ने
पछी कार्य–एम नथी, बंने साथे ज छे.
सम्यग्दर्शन वगर आत्मानो लाभ न थयो ने भवनो आरो न आव्यो. आ