Atmadharma magazine - Ank 360
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: आसो र४९९ : आत्मधर्म : ३ :
भेदज्ञानवडे ज्यां पोताना ज्ञानतत्त्वनो निर्णय करीने तेनो अनुभव कर्यो त्यां अपूर्व
मोक्षसुखनो स्वाद आव्यो; तेने प्रगटेलो चैतन्यभाव राग वगरनो मुक्त ज छे. चोथा
गुणस्थानना सम्यग्द्रष्टिने राग वगरनो जे चैतन्यभाव (सम्यग्दर्शनादि) छे ते पण
निर्ग्रंथ ज छे, नीराग ज छे, आनंदमय ज छे अने मुक्त ज छे.
अहो, आवो भाव पर्यायमां प्रगट्यो त्यारे सहज–परमात्मतत्त्व प्राप्त कर्युं
कहेवाय; एने हवे भवदुःखनो अंत आव्यो, ने आनंदमय आत्मतत्त्वना अनुभव पूर्वक
मोक्षसुखनो स्वाद लेतो–लेतो अल्पकाळमां ते सिद्धपदने साधे छे. सम्यग्दर्शन थयुं
त्यारथी आवी अद्भुत दशा शरू थई गई छे. अरे, धर्मीना आवा भावने जे समजे
तेनी पण बलिहारी छे, तेने परपरिणतिनो महिमा छूटी जशे ने चैतन्यमात्र आत्माना
सहज महिमामां ते लीन थशे.
अंतरमां सहज महिमावंत चैतन्यवस्तुना अनुभवमां ज्यां पर्याय मग्न थई त्यां
कर्ता–कर्मना भेदनी वासना छूटी गई, ने शुद्धात्मानी अनुभूति थई. आ द्रव्य कर्ता ने
पर्याय कार्य–एवा कर्ता–कर्मना भेदनी भ्रांति रहे त्यां सुधी शुद्धात्मतत्त्व प्राप्त थतुं नथी.
तेथी द्रव्य–पर्यायना भेदनी भ्रांतिने पण दूर करीने आखरे अभेद–अनुभूतिमां जेणे
चैतन्यतत्त्वने प्राप्त करी लीधुं छे ते जीव अतीन्द्रिय आनंदने अनुभवतो थको मोक्षरूप
महा लक्ष्मीने प्राप्त करीने सदाय मुक्त ज रहेशे. –अहा, एना अतूल महिमानी शी
वात? आवा तत्त्वनो स्वाद आव्यो त्यां हवे जन्म–मरण केवा? ए तो भवदुःखथी
छूटीने चैतन्यसुखमां लीन थयो. जगतना कोई पदार्थवडे एनी तूलना थई शके नहि.
एनो महिमा अपार छे.
आत्मा ज्ञानचेतनास्वरूप छे. ज्ञानचेतनास्वरूप मारा तत्त्वमां कर्मनो संबंध
नथी, कर्मना संबंधवाळा कोई अशुद्धभावो मारामां नथी; मारुं तत्त्व कर्मोथी अत्यंत जुदुं
छे. कर्मो, अशुद्धभावो अने शुद्धचेतना–ए बधुं जुदुं जुदुं शोभी रह्युं छे; तेमांथी
शुद्धचेतनावडे अलंकृत एवो आत्मा हुं छुं, अशुद्धभावो के कर्मो तो माराथी तद्न जुदा
छे. –आवुं मारुं मंतव्य छे, एटले के मारा आत्माने हुं आवो अनुभवुं छुं.
अहो, आवो जुदो आत्मा पोते विद्यमान छे, तेमां ऊंडा ऊतर्या वगर कोई रीते
जीवने शांति के सुखनुं वेदन थाय नहि. अरे, शांतिना वेदन वगरनुं जीवन एने तो
आत्मानुं जीवन केम कहेवाय? राग अने दुःखना अलंकारथी ते कांई आत्मानी