Atmadharma magazine - Ank 361
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : कारतक : २५००
आनंदमय अपूर्व भेदविज्ञान
ज्ञानपर्यायनुं आत्माथी अनन्यपणुं ने परथी अत्यंत भिन्नपणुं

जैनशासनमां बतावेली जीव–अजीवनी भिन्नताना
भेदविज्ञाननुं अपरंपार माहात्म्य छे, अने ते अपूर्व छे.
अनंतकाळथी संसारमां परिभ्रमण करता जीवे परलक्षी
शास्त्रज्ञान, के शुभरागरूप व्रत–तप–त्याग वगेरे बधुं कर्युं छे, पण
शुद्धात्माना भावश्रुतज्ञानरूप भेदविज्ञान तेणे एक सेकंड पण पूर्वे
कर्युं नथी. वीतरागी संतो कहे छे के हे जीव! एकवार तुं स्व–परनुं
साचुं भेदज्ञान कर तो अल्पकाळमां तारो मोक्ष थया वगर रहे
नहि. एक सेकंडनुं भेदज्ञान अनंतकाळना जन्ममरणथी छोडावीने
मोक्षसुखनो अपूर्व स्वाद चखाडे छे. सर्वे परद्रव्यो अने
परभावोथी आत्मानुं जुदापणुं अने पोताना ज्ञानस्वभावथी
एकपणुं समजीने, अपूर्व भेदज्ञानवडे चैतन्यस्वादनुं वेदन करवुं ते
श्री जिनागमनो सार छे. भेदज्ञान वगरनुं बधुं असार छे,
भेदज्ञान ज सारभूत छे. मुमुक्षु जीवोए पळेपळे भेदज्ञान
भाववायोग्य छे.
[समयसार गा. ३९० थी ४०४ ना प्रवचनमांथी]
आत्मा पोते ज्ञान छे; आत्मामां परिपूर्ण ज्ञान छे ने शब्दादि अचेतनमां ज्ञान
जराय नथी; एटले ज्ञान आत्माथी ज थाय छे ने परथी थतुं नथी–आवो अनेकांत–
स्वभाव वर्णवीने श्री आचार्यदेवे आ गाथाओमां ज्ञानस्वभावनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो
जाहेर कर्यो छे. शास्त्रो वगेरे परद्रव्यो ज्ञान नथी माटे तेओ ज्ञाननुं जरा पण कारण
नथी; आत्मा पोते ज्ञान छे तेथी आत्मा ज ज्ञाननुं कारण छे; ज्ञानादि पर्यायो साथे
आत्मा तन्मय छे.