जैनशासनमां बतावेली जीव–अजीवनी भिन्नताना
अनंतकाळथी संसारमां परिभ्रमण करता जीवे परलक्षी
शास्त्रज्ञान, के शुभरागरूप व्रत–तप–त्याग वगेरे बधुं कर्युं छे, पण
शुद्धात्माना भावश्रुतज्ञानरूप भेदविज्ञान तेणे एक सेकंड पण पूर्वे
कर्युं नथी. वीतरागी संतो कहे छे के हे जीव! एकवार तुं स्व–परनुं
साचुं भेदज्ञान कर तो अल्पकाळमां तारो मोक्ष थया वगर रहे
नहि. एक सेकंडनुं भेदज्ञान अनंतकाळना जन्ममरणथी छोडावीने
मोक्षसुखनो अपूर्व स्वाद चखाडे छे. सर्वे परद्रव्यो अने
परभावोथी आत्मानुं जुदापणुं अने पोताना ज्ञानस्वभावथी
एकपणुं समजीने, अपूर्व भेदज्ञानवडे चैतन्यस्वादनुं वेदन करवुं ते
श्री जिनागमनो सार छे. भेदज्ञान वगरनुं बधुं असार छे,
भेदज्ञान ज सारभूत छे. मुमुक्षु जीवोए पळेपळे भेदज्ञान
भाववायोग्य छे.
स्वभाव वर्णवीने श्री आचार्यदेवे आ गाथाओमां ज्ञानस्वभावनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो
नथी; आत्मा पोते ज्ञान छे तेथी आत्मा ज ज्ञाननुं कारण छे; ज्ञानादि पर्यायो साथे
आत्मा तन्मय छे.