ईन्द्रियज्ञानना आश्रये सम्यग्ज्ञान थतुं नथी ने आत्मा समजातो नथी. आटलुं समजे
त्यारे द्रव्यश्रुतथी आत्माने जुदो मान्यो कहेवाय, अने त्यारे जीवने धर्म थाय.
पोते ज ज्ञान छो. तारुं ज्ञान कांई शास्त्रना शब्दोमां नथी. परना आश्रये ज्ञान थवानुं
जे कहे ते तो द्रव्यश्रुत पण नथी, ते तो कुश्रुत छे. अहीं तो भगवाने कहेला द्रव्यश्रुतनी
वात छे. जे जीवने, आत्मा समजवानी जिज्ञासा छे तेने प्रथम द्रव्यश्रुत तरफ लक्ष होय
छे, द्रव्यश्रुतना लक्षे शुभ राग थाय छे खरो, साचा देव–शास्त्र–गुरुनी ओळखाण,
सत्समागम, शास्त्रस्वाध्याय वगेरे निमित्तो होय खरा अने जिज्ञासुने तेना लक्षे
शुभराग थाय, परंतु ते कोई निमित्तोना लक्षे आत्मस्वभाव समजातो नथी. द्रव्यश्रुत
वगेरे निमित्तो अने ते तरफना लक्षे थता रागनो आश्रय छोडीने, तेनाथी रहित
त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनी रुचि करीने ज्ञानने स्व तरफ वाळे तो ज सम्यग्ज्ञान थाय.
जिज्ञासु जीवने श्रवण तरफनो शुभभाव होय, पण जो ते श्रवणथी ज ज्ञान थशे एम
मानी ले तो ते कदी रागथी जुदो पडीने पोताना तरफ वळे नहि ने तेनुं अज्ञान टळे
नहि. अचेतन शब्दोथी के रागथी ज्ञान थतुं नथी, ज्ञान तो पोताना ज्ञानस्वभावथी
थाय छे,–एम समजतां अपूर्व भेदज्ञान प्रगटे छे.
वीतरागता अने केवळज्ञान प्रगट करे छे. एवुं परिपूर्ण केवळज्ञान दरेक जीवनो स्वभाव
छे. सर्वज्ञदेवने एवुं केवळज्ञान प्रगट थतां पोतानो परिपूर्ण आत्मस्वभाव अने
जगतना सर्वे द्रव्य–गुण–पर्यायो एक साथे प्रत्यक्ष जणाय छे. केवळज्ञान थया पछी पण
तेरमा गुणस्थाने योगनुं कंपन होय छे. तीर्थंकर भगवानने तेरमा गुणस्थाने
तीर्थंकरनामकर्मनो उदय होय छे. अने तेना निमित्ते ‘“’ एवो दिव्यध्वनि छूटे छे.
आत्मस्वभाव समजवामां निमित्तरूप द्रव्यश्रुत छे, ते द्रव्यश्रुतमां सौथी उत्कृष्ट
दिव्यध्वनि छे. परंतु तेना आश्रये सम्यग्ज्ञान थतुं नथी–एम अहीं बताववुं छे.
ज्ञानपर्याय दिव्यध्वनिथी जुदी छे ने आत्माथी अभिन्न छे. दिव्यध्वनि पुद्गलनी रचना
छे, ते