ज्ञान छे.
सम्यग्ज्ञान थवामां निमित्तरूप वाणी छे. खरेखर तो पोताना आत्मामां जे भेदज्ञान
प्रगट्युं छे ते (भावश्रुत) जयवंत हो–एवी भावना छे; अने शुभविकल्प वखते,
भेदज्ञानना निमित्तरूप वाणीमां आरोप करीने कहे छे के ‘श्रुत जयवंत हो, भगवाननी
ने संतोनी वाणी जयवंत हो. ’ केमके ते सम्यक्श्रुत भावश्रुतमां निमित्त छे. परंतु ते
वखतेय धर्मीने अंतरमां बराबर भान छे के वाणी वगेरे परद्रव्यथी के तेना तरफना
रागथी मारा आत्माने किंचित् लाभ थतो नथी.
सम्यग्ज्ञान, शांति, सुख वगेरे प्रगट करवां होय तेणे क््यांय बहारमां न जोतां, अनंत–
गुणस्वरूप पोताना आत्मस्वभावमां जोवुं. आत्मस्वभाव तरफ वळतां सम्यग्दर्शन–
ज्ञान वगेरे प्रगट थाय छे. अने ते सिवाय वाणी–शास्त्र वगेरे बाह्य वस्तुओना लक्षे
रागादि बंधभावो थाय छे.
परम सत्य वात छे, आत्मकल्याणनो मार्ग छे. पण जेने पोताना कल्याणनी दरकार
नथी अने जगतना मान–आबरूनी दरकार छे एवा तूच्छबुद्धि जीवोने आ वात नथी
रुचती, एटले खरेखर तेने पोतानो ज्ञानस्वभाव ज नथी रुचतो ने विकार भाव रुचे
छे; तेथी आवी अपूर्व आत्मस्वभावनी वात काने पडतां एवा जीवो पोकार करे छे के
‘अरे, आत्मा परनुं कांई करे नहि–एम कहेवुं ते तो झेरनां ईन्जेक्शन आपवा जेवुं छे.
’ अरे, शुं थाय! आ भेदज्ञाननी परमअमृत जेवी वात पण तेने झेर जेवी लागी!!
बापु! एकवार आ भेदज्ञाननुं ईन्जेक्शन ले तो अनंतकाळना मिथ्यात्वनुं झेर ऊतरी
जशे, ने तने अतीन्द्रिय आनंद थशे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, विकारनो अने परनो ते
अकर्ता छे–एवी भेदज्ञाननी वात तो,