Atmadharma magazine - Ank 361
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : १७ :
वाणी अचेतन छे, तेमां ज्ञान नथी, ए व्यतिरेकपणुं कह्युं, अने ज्ञान ते आत्मा
छे–ते अन्वयपणुं छे. एटले के आत्मा पोताना अनंत गुणस्वभावोथी परिपूर्ण छे अने
वाणी वगेरेथी तद्न जुदो छे,–एम अस्ति–नास्ति द्वारा आचार्यदेवे आत्मस्वभाव
बताव्यो छे.
ज्ञान अने वाणी जुदा छे. ज्ञानमांथी वाणी नीकळती नथी, अने वाणीमांथी
ज्ञान प्रगटतुं नथी. ज्ञानमां जेवी लायकात होय तेवी वाणी निमित्तरूपे होय–एवो
निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे; त्यां अज्ञानी जीव भ्रमथी एम माने छे के वाणीने कारणे
ज्ञान थाय छे. तेथी ते वाणीनो आश्रय छोडतो नथी ने स्वभावनो आश्रय करतो नथी,
एटले तेने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी.–एवा जीवने वाणी अने ज्ञाननी अत्यंत भिन्नता
बतावे छे. ज्ञान चेतन छे अने वाणी जडनुं परिणमन छे. ज्ञान अने वाणी बंने
पोतपोतानी वस्तुमां तन्मय थईने स्वतंत्रपणे परिणमे छे. आवुं अपूर्व भेदविज्ञान
करनार जीव स्वसमयमां स्थिर थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अने मोक्ष पामे छे.
–ते वीरनो मार्ग छे.
जय महावीर
मस्तानाका मारग मुक्ति....
शुं जाणे ते दीवाना?
मेरा मारग न्यारा सबसे
(पण) शिवमारगसे नहीं न्यारा;
वीतरागका वचन प्रमाणे
समजे तो जगकुं प्यारा....
सच्चा कहे जिनवाणी खुल्ला,
समजे ज्ञानी मस्ताना;
मस्तानाका मारग मुक्ति
शुं जाणे ते दीवाना?
धन्य धन्य जगमां एवा संतो,
संगत जेनी बहु सारी;
संतजनो सहु चढते भावे
हुं जाउं तस बलिहारी...