: ४० : आत्मधर्म : कारतक : २५००
सत् द्रव्य–गुण–पर्याय ए त्रणेय सत्त्वनो ज विस्तार छे, सत्त्वथी (एटले के
वस्तुनी सत्ताथी) ते कोई जुदा नथी. तेमज जुदी–जुदी त्रण सत्ता नथी, एक ज सत्ता
द्रव्य–गुण–पर्याय सर्वेमां व्यापक छे.
• अभेदनी अनुभूतिमां आनंद; •
ते अनुभूतिमां पर्यायनी गौणता छे, अभाव नथी
सत्नी अनुभूतिमां ‘द्रव्य–गुण–पर्याय’ एवा भेद रहेता नथी, त्यां तो
अभेदनी अनुभूतिनो वीतरागी आनंद छे ते अनुभूतिमां शुद्धपर्यायो गौणरूप छे,
अभावरूप नथी. ‘आ द्रव्य, आ गुण, आ पर्याय’ एवा भेदनुं लक्ष रहे त्यां विकल्प छे,
तेमां अटके तेने निर्विकल्प अनुभूति थती नथी.
• निर्ग्रंथ जैनमार्ग; चोथागुणस्थाने पण सम्यग्दर्शननुं निर्ग्रंथपणुं •
आत्मानो वीतरागस्वभाव छे; ते स्वभाव तो मोहादि वगरनो निर्ग्रंथ छे; अने
ते स्वभावने अवलंबीने जे रागरहित सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रदशा प्रगट थई ते पण
निर्ग्रंथ छे; चोथा गुणस्थाने सम्यग्दर्शन छे तेने पण निर्ग्रंथ कहेवाय छे, केमके ते
सम्यग्दर्शनमां मिथ्यात्व–मोहनी गांठ छूटी गई छे. मुनिदशाने योग्य निर्ग्रंथपणुं
(बहारमां पण ज्यां वस्त्रादि परिग्रह नथी) ते तो छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने होय छे.
आवो निर्ग्रंथमार्ग ते जैनदर्शननो मत छे. आवा जैनदर्शननी ओळखाणपूर्वक,
शुद्धात्मानी अनुभूतिरूप जे सम्यग्दर्शन छे ते धर्मनुं मूळ छे.
ज्यां आत्मानुं ज्ञान साचुं नथी, जैनमार्गना देव–गुरु–सूत्रने जे मानतो नथी
एवो जीव पोते तो धर्मथी भ्रष्ट छे, अने एवा भ्रष्ट जीवमां बहारना कोई जाणपणानी
के त्याग वगेरेनी अधिकता देखाय तो तेथी कांई धर्मीने तेनो महिमा न आवे; धर्मभ्रष्ट
जीवने जे अनुमोदे, प्रशंसा करे, ते जीव पोते पण धर्मथी भ्रष्ट थाय छे, वीतराग
जैनदर्शनना साचा मार्गने ते जाणतो नथी. वीतराग जैनमार्ग तो मोहनी गांठ वगरनो
ने वस्त्रादि परिग्रह वगरनो निर्ग्रंथ छे.
• अहो, सत्य जैन वीतरागमार्ग! एना महिमानी शी वात! •
अरे, जैनदर्शन तो अलौकिक वीतरागमार्ग छे! वीतरागी स्वानुभवी संतोनो जे
अभिप्राय, सर्वज्ञदेवनो जे मार्ग, ते कुंदकुंदाचार्यदेवे प्रसिद्ध कर्यो छे. ए निर्ग्रंथ