: २ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
‘अहो, समकितरूपी सोनानो सूरज ऊग्यो!’
बेसता वर्षना मंगलप्रभाते चैतन्यनी अत्यंत
प्रसन्नतापूर्वक वहेली सवारमां गुरुदेवे नव देवताने याद
करीने, आनंदझरती जे उत्तम बोणी आपी ते ‘आत्मधर्म’
द्वारा आपने पहोंचाडतां आनंद थाय छे. –सं.
बेसता वर्षना सुप्रभातमां गुरुदेवे मंगल तरीके सौ प्रथम नव देवोने याद कर्यां
–अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनालय, जिनचैत्य, जिनवाणी अने
जिनधर्म–ए नव देव छे. ए नवे वीतरागस्वरूप छे, वीतरागताना प्रतिपादक छे. अने
वीतरागभाव वडे ज तेमनी साची ओळखाण थाय छे.
आत्मानो स्वभाव अतीन्द्रियज्ञान छे; अतीन्द्रियज्ञान वडे जाणवानो तेनो
स्वभाव छे, तेमज ते पोते अतीन्द्रियज्ञानथी ज जणाय छे; आ रीते अतीन्द्रिय
(स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष) ज्ञानपूर्वक ज अरिहंत–सिद्ध–जिनवाणी वगेरेनुं साचुं ज्ञान थाय
छे.–ए वात प्रवचनसारनी १७२ गाथामां घणी सरस कही छे; गुरुदेव तेनो वारंवार
उल्लेख करे छे ने तेनुं रहस्य मुमुक्षुजीवे खास समजवा योग्य छे.
एवी ज रीते समयसारनी ४७ शक्तिमांथी १२ मी प्रकाशशक्तिनो उल्लेख
करीने वारंवार कहे छे के स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष थवानो आत्मानो स्वभाव छे. साधकना
मति–श्रुतज्ञानमां पण स्वसंवेदन–प्रत्यक्षथी आत्माने जाणवानी ताकात छे. अहो,
आवुं स्वसंवेदन थयुं ते पण अशरीरी छे, अतीन्द्रिय–आनंदसहित छे, ने ते
वीरप्रभुनो मार्ग छे.
अहो, वीरप्रभुना मोक्षनुं आ अढीहजारमुं वर्ष छे; भगवाननो मार्ग तो
वीतरागभावमां छे. प्रभुनो वीतरागमार्ग जयवंत छे. आवा मार्गने ओळखीने
सम्यग्दर्शननी एवी अप्रतिहत आराधना करवी के, अत्यारे क्षायोपशमिक होवा छतां
वच्चे भंग पड्या वगर क्षायिकसम्यक्त्व थाय. आ रीते क्षायिक साथे जोडणीवाळुं
सम्यक्त्व ते पण क्षायिक जेवुं ज छे;–‘ए वात भगवाननी वाणीमां आवेली छे.’
(–पू. बेनश्रीना जातिस्मरणमां). आवी आराधना ते सुप्रभात छे.