‘ज्ञानमात्र’ भावमां समाई जाय छे, पण ते ज्ञानमात्र भावमां रागादि भावो समाता
नथी;–आ रीते ज्ञानमात्र आत्माने शुद्धपणुं छे. ते रागादिभावो ज्ञानना ज्ञेयपणे छे,
पण ज्ञानमां तन्मयपणे नथी, जुदापणे छे. आवा भिन्न ज्ञाननो अनुभव ते धर्मात्मानी
गुणना वैभवसहित) देनारी छे.–आवा ज्ञानस्वभाव साथे एकतानो संबंध जेणे
जोड्यो तेणे राग साथे के निमित्त साथे एकतानो संबंध तोड्यो. एटले स्वाश्रये
अनंतगुणोनी शुद्धतारूप परिणमन थवा मांड्युं,–ए ज मोक्षमार्ग छे, ए ज भगवान
अर्हंतदेवनुं शासन छे. भगवान कहे छे के आवा अनेकांतवडे स्व–परने भिन्न जाणीने,
अने ज्ञानलक्षणथी आत्माने लक्षित करीने अंतरमां जा...तो तने जरूर केवळज्ञानादि
अनंतगुणना वैभवरूप स्वरूप–लक्ष्मी प्राप्त थशे...थशे ने थशे!–ए अनेकान्तमार्गनो
कोलकरार छे.
कोई कारणने शोधे नहीं. स्वाश्रये ज छ कारकरूप थईने आत्मा स्वयमेव
केवळज्ञानादिरूपे परिणमे छे.
वैराग्यपूर्वक सतत प्रवर्तवुं योग्य छे; अने
तेना फळमां जे अद्भुत परम शांति वेदाय छे
ते परम तृप्तिकर छे.