Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : मागशर : रप००
देखनार जीव जैन छे, आवा आत्माने द्रष्टिमां लीधा वगर ‘जैन’ मां नंबर आवतो
नथी. सम्यग्दर्शन थाय त्यारे ज जैनत्व शरू थाय छे; तेने भले हजी व्रतादि न होय
तोपण ते जीव मोक्षमार्गमां दाखल थई गयो छे.
ते अव्रती श्रावक शुद्ध सम्यग्दर्शनस्वरूप पोताना आत्माने देखे छे. आत्माने
देखनारी आवी शुद्धद्रष्टि ते निश्चय सम्यग्दर्शन छे; तेमां राग न आवे. चोथागुणस्थाने
आवुं सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी ते जीव मोक्षसन्मुख थयो, ने संसारदुःखथी परांग्मुख
थयो. दुःखना कारणरूप मिथ्यात्वादि भावो तेनाथी जुदो पडीने, भेदज्ञानवडे चैतन्य–
स्वरूपना आनंदनो स्वाद तेणे चाखी लीधो, त्यां संसार दुःखोथी ते परांग्मुख थई
गयो, तेनी परिणतिनो प्रवाह मोक्षसुख तरफ चाल्यो.
* मोहने जीतीने मोक्षसन्मुख थयो ते साचो जैन *
जुओ, आ ‘जैन’ नुं स्वरूप! साचो जैन क्यारे कहेवाय? तेनी आ वात छे.
जेने हजी व्रत नथी, चारित्र नथी, पण शुद्धआत्मानी द्रष्टि वर्ते छे, ने जे वीतराग देव–
गुरुनो भक्त छे, ते प्रथम शरूआतनो जैन छे; अव्रती होवा छतां ते धर्मी छे, ते
मोक्षनो पथिक छे. ते स्वभावसुखनी सम्मुख थयो छे ने संसारदुःखथी विमुख वर्ते छे.
जेने सम्यग्दर्शन नथी तेने परमार्थ जैनपणुं नथी केमके तेणे मोहने जीत्यो नथी.
‘–जीते ते जैन.’ कोने जीते?–मोहने. कोण जीते?–स्वभावसन्मुख थयेलो जीव.
बहारमां जीवने कोई शत्रु नथी, पण अंतरमां मिथ्यात्व–अज्ञान–रागद्वेषमोहरूप
पोतानो भाव शत्रु छे, तेने सम्यक्त्वादि शुद्धभाव वडे जीतवो, नष्ट करवो ते साचुं
जैनपणुं छे. आवा जैनत्वनी शरूआत सम्यग्दर्शन वडे थाय छे. अंतरमां आत्मानो
अचिंत्य महिमा जाणी, तेनी सन्मुख वळीने सम्यग्दर्शन पामवानी तैयारीवाळा जीवे
ज्यां त्रण करण वडे मोहनो नाश करवा मांड्यो त्यां तेने ‘जिन’ कही दीधो छे. आवी
दशा वगर एकला बाह्य आचरणथी जैनमां नंबर आवतो नथी. भाई, आत्मज्ञान
वगर तुं व्रतादि शुभाचरण करीश तो तेथी पुण्य बंधाशे पण कांई भवथी तारो छूटकारो
नहि थाय. मिथ्यात्वसहितनी शुभक्रियाओ तो मोक्षथी परांग्मुख छे, ने संसारनी
सन्मुख छे, अने रागथी पार चैतन्यतत्त्वने देखनार धर्मी जीव सम्यग्दर्शन वडे मोक्षनी
सन्मुख छे ने संसारथी परांग्मुख छे.