Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : रप०० आत्मधर्म : ११ :
धर्मीने आत्माना सुखनुं वेदन होय छे. संसारनी चार गतिथी पार, मोक्षना
अतीन्द्रियसुखनो स्वाद धर्मी जीवे चाखी लीधो छे. जे सुख ईंद्रना के चक्रवर्तीना पण
बाह्य वैभवमां नथी ते अपूर्व सुख चैतन्यना श्रद्धा–ज्ञानमां धर्मीने निरंतर वर्ते छे.
* जैन थयो ते जिनदेव सिवाय बीजा मार्गने माने नहि *
सम्यग्दर्शन थतां धर्मीने सिद्धसमान पोतानो शुद्धआत्मा प्रतीतमां–देखवामां–
श्रद्धामां–ज्ञानमां ने स्वानुभवमां स्पष्ट आवी जाय छे; त्यारथी तेनी गति–परिणति
विभावोथी विमुख थईने सिद्धपद–सन्मुख चाली, ते मोक्षमार्गी थयो. पछी जेम जेम
शुद्धता अने स्थिरता वधती जाय छे तेम तेम श्रावकधर्म अने मुनिधर्म प्रगटे छे.
श्रावकपणुं–मुनिपणुं ते आत्मानी शुद्धदशामां रहे छे, ते कांई बहारनी चीज नथी. हजी
तो जैनधर्ममां तीर्थंकरदेवे मोक्षमार्ग केवो कह्यो छे तेनी पण खबर न होय, ने
विपरीतमार्गमां ज्यां–त्यां माथुं झुकावतो होय, एवा जीवने तो जैनपणुं के श्रावकपणुं
होतुं नथी. जैन थयो ते जिनवरदेवना मार्ग सिवाय बीजाने स्वप्नेय माने नहीं.
कोई कहे के आत्मा एकांत शुद्ध छे ने तेने विकार के कर्मनो कांई संबंध छे ज
नहि,–तो ते वात साची नथी. आत्मा द्रव्यस्वभावथी शुद्ध छे पण पर्यायमां तेने विकार
पण छे. ते विकार पोतानी भूलथी छे ने स्वभावना भान वडे ते टळी शके छे, ने शुद्धता
थई शके छे. विकारभावमां अजीवकर्मो निमित्त छे, विकार टळतां ते निमित्त पण छूटी
जाय छे. आ प्रमाणे द्रव्य–पर्याय, शुद्धता–अशुद्धता, निमित्त–ए बधानुं ज्ञान बराबर
करवुं जोईए. ते जाणीने शुद्ध आत्मानी द्रष्टि करनार जीव सम्यग्द्रष्टि छे.
* सम्यग्द्रष्टिने नव तत्त्वनी श्रद्धा *
जगतमां अनंता आत्माओ स्वयंसिद्ध, कोईना कर्या वगरना सदाय छे. एकेक
आत्मा स्वतंत्र पोताना अनंत गुण–पर्याय सहित छे. कोई कहे के आत्माने पर्याय न
होय, ए तो बहारथी वळगी छे;–तो ते वात खोटी छे. भाई, पर्याय पण आत्मानुं
स्वरूप छे, ते आत्मानो एक स्वभाव छे; सिद्धमांय पर्याय तो छे, पर्यायने कांई छोडी
देवानी नथी पण तेमां विकार छे ते छोडवानो छे. शुद्ध–आनंदमय निर्विकार पर्याय ते
तो आत्मानुं स्वरूप छे.
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