आवडे के न आवडे, पण तेना भावोनुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं ते सम्यग्द्रष्टिना ज्ञानमां ने
श्रद्धानमां निरंतर वर्ते छे. अजीवना कोई अंशने ते जीवरूपे समजतो नथी, के रागना
कोई अंशने ते संवर–निर्जरा–मोक्षरूपे वेदतो नथी. नवे तत्त्वना भाव जेवा छे तेवा ज
तेने वेदाय छे, विपरीत वेदाता नथी. आवुं तत्त्वार्थश्रद्धान दरेक सम्यग्द्रष्टिने जरूर
होय छे.
ज्यारे पोताना साचा स्वभावने भूलीने अज्ञानथी पोताने रागरूपे के शरीररूपे
अनुभवे छे त्यारे तेमां अजीव कर्म निमित्त छे; तेना संबंधथी जीवनी पर्यायमां पुण्य–
पाप–आस्रव ने बंध भावोनी उत्पत्ति थाय छे, ते बधा क्षणिक अशुद्ध भावो छे, ने ते
संसारनुं कारण छे, ते जीव ज्यारे अजीवथी अत्यंत भिन्न पोताना सहज ज्ञानस्वरूपने
अनुभवे छे त्यारे तेनी पर्यायमां सम्यक् दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभावो एटले के
संवर–निर्जरा–मोक्षरूप भावो प्रगटे छे. त्यारे तेने कर्मनो निमित्तसंबंध पण छूटी जाय
छे. जैनदर्शन–अनुसार नव तत्त्वनुं आवुं साचुं स्वरूप ओळखतां सम्यग्दर्शन थाय छे.
माने ने द्रव्यरूप न माने,–तो नवतत्त्व के आत्मवस्तु कंईपण सिद्ध न थाय माटे द्रव्य–
पर्याय–स्वरूप वस्तु जेम छे तेम श्रद्धा–ज्ञानमां लेवी जोईए.