Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : रप०० आत्मधर्म : १३ :
* जीव अने अजीव बंनेनी क्रियानुं अत्यंत जुदापणुं *
नवतत्त्वने जाणीने सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना चिदानंद स्वभावने लक्षमां ल्ये छे;
तेने मिथ्यात्वादि कर्मप्रकृतिनो अभाव थई गयो, ते अजीवनी क्रिया अजीवमां छे, ते
क्रिया–परिणति कांई जीवनी नथी, जीवे तेने करी नथी, जीवथी ते जुदी छे. अने
सम्यग्दर्शनादि क्रिया–परिणति थई ते जीवनी क्रिया जीवमां छे, जीव तेनो कर्ता छे,
जीवथी ते जुदी नथी. ते कांई कर्मप्रकृतिए करी नथी. आ जीव अने अजीव बंनेनुं
परिणमन जुदुं स्वतंत्र पोतपोतामां छे. जीवना उत्पाद–व्यय–ध्रुव जीवमां छे, अजीवना
उत्पाद–व्यय–ध्रुव अजीवमां छे.
जुओ, आ वस्तुस्वरूप! सत् वस्तु उत्पाद–व्यय–ध्रुवरूप छे. तेना उत्पाद–व्यय–
ध्रुव पोताथी ज छे ने परथी नथी. आवुं सत् वस्तुनुं ज्ञान थतां भेदज्ञान थाय छे एटले
परमां कर्तृत्वबुद्धि ऊडी जाय छे, ने स्वसन्मुख परिणमन थाय छे. आ रीते
वस्तुस्वरूपनुं भेदज्ञान ते वीतरागतानुं कारण छे. वस्तुस्वरूपना ज्ञान वगर राग–द्वेष
कदी छूटे नहि.
अहो, आवी वात सर्वज्ञदेवना जैनमार्ग सिवाय बीजे क््यां छे? जैनमार्गने
अने अन्य मार्गने कांई मेळ नथी, जैनमार्गने अने अन्य मार्गने जेओ सरखां गणे छे
तेओने तो अज्ञाननी तीव्रता छे. बापु! जैनमार्गने जाण्या वगर तने जैनपणुं के
श्रावकपणुं केवुं? जैनमार्गमां जेवी स्वतंत्रता ने पूर्णता बतावी छे तेवी बीजे क्यांय
नथी बतावी. तत्त्वना आवा वीतरागीस्वरूपने जाणीने श्रद्धा करतां जीवने अपूर्व
सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान थाय छे, चैतन्यना अपूर्व सुखनुं तेने वेदन थाय छे, ने ते
जीव संसार–दुःखथी विमुख थई जाय छे. आ रीते आनंदनी उत्पत्ति ने दुःखनो नाश
सम्यग्दर्शन वडे थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां साचुं जैनपणुं–धर्मीपणुं–मोक्षमार्गीपणुं शरू
थाय छे.
* सम्यग्दर्शन अने अव्रतपणुं–बंने साथे होई शके छे *
आत्माना आनंदस्वभावनुं भान थतां चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने अव्रतीपणुं
छे, छतां त्यां शुद्ध आत्मानी अनुभूति अने आनंदनो स्वाद छे. आ रीते ते
सम्यग्द्रष्टिने अव्रतरूप औदयिकभाव, अने सम्यक्त्वरूप औपशमिकादि भाव–एक साथे
होय छे, पण बंनेनुं कार्य जुदुं छे. अव्रत तो बंधना कारण तरीके काम करे छे, ने