भिन्नता जाणवी. तेणे शुद्ध आत्माने जाण्यो होवा छतां हजी पांच ईंद्रियना विषयोना
भोगवटानो अशुभभाव पण होय छे, त्यां व्रत नथी छतां रागथी भिन्न
चैतन्यतत्त्वनुं भान एक क्षण पण भूलातुं नथी. विषयोनो अनुराग होवा छतां
तेनाथी भिन्न शुद्ध चैतन्यद्रष्टि धर्मीने निरंतर वर्ते छे. चैतन्यसुख विषयातीत छे ते
चाख्युं होवाथी तेने विषयोमां सुखबुद्धि तो थती ज नथी, एटले अनंतानुबंधी
रागादि तो थता ज नथी. माटे तेना रागने अल्प ज कह्यो छे.
मोक्षमार्गनो के मोक्षमार्गना उपदेशनो ज अभाव थई जाय; एटले तीर्थनी प्रवृत्ति ज
न रहे. सम्यग्दर्शन पछी पण जीव अमुक काळ संसारमां रहे छे ने मोक्षमार्गने साधे
छे तथा तेनो उपदेश आपे छे.–ए रीते मोक्षमार्गरूप तीर्थनी प्रवृत्ति छे. जोके
सम्यग्दर्शन थतांवेंत श्रद्धामांथी तो बधो राग नीकळी गयो ने शुद्धआत्मा
अनुभूतिमां आव्यो, पण हजी चारित्रनी पर्यायमां अव्रतादि संबंधी राग छे ते
टाळवानो बाकी छे, तेनुं धर्मीने ज्ञान छे; ने श्रावकधर्म तथा मुनिधर्मनी उपासना
वडे ते राग टाळीने वीतराग थईने केवळज्ञान प्रगट करशे, त्यारपछी मुक्ति थशे.
आ रीते सम्यग्दर्शननुं अने मोक्षमार्गनुं स्वरूप जेम छे तेम जाणवुं जोईए. एकला
सम्यग्दर्शनमां मोक्षमार्ग पूरो थई जतो नथी; सम्यग्दर्शन थतां मोक्षमार्गनी शरूआत
थाय छे, पण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे पूरा थाय त्यारे मोक्षमार्ग पूरो थाय छे.
अहो, जैनधर्म अलौकिक! ने तेमां कहेलो मोक्षमार्ग पण अलौकिक छे. चोकखो मार्ग,
तेमां रागनो कोई कण समाय नहि.
शुद्ध कहेवाय छे ने त्रणे सम्यग्दर्शनने निश्चय सम्यग्दर्शन कहेवाय छे. अव्रतीने हजी
राग होवा छतां वीतरागस्वभावनो प्रेम तेने वर्ते छे, तेनी भावना वर्ते छे; तेनी
द्रष्टि रागथी ने विषयोथी परांग्मुख छे, ने चैतन्यना सुखनी सन्मुख छे. ते