आत्मस्वरूपमां शंकादि कोई दोष रहेता नथी.
तो वात शी करवी? अरे, मिथ्याद्रष्टि जीवो पंचमहाव्रत पामीने नवमी ग्रैवेयक सुधी
गया, पण रागवगरना आत्माना स्वाद वगर ते जीवोने खरेखर जैनपणुं न थयुं,
केमके तेओए मिथ्यात्वमोहने जीत्यो नहि. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारे अव्रती सम्यग्द्रष्टि
पण साचो जैन थयो, तेणे मिथ्यात्वमोहने जीती लीधो; मोहनो नाश करीने सम्यग्दर्शन
वडे ते जैन थयो (ए लक्षमां राखवुं के नव ग्रैवेयकोमां मोटा भागना जीवो तो
सम्यग्द्रष्टि ज छे, मिथ्याद्रष्टि जीवो तो थोडा छे, अने नव ग्रैवेयेक पछी उपरना
देवलोकमां तो बधा जीवो सम्यग्द्रष्टि ज होय छे.)
निश्चय विषे स्थित साधुओ भाखे जीतेन्द्रिय तेहने.
अतीन्द्रियसुखनो अनुभव पण वर्ते छे; ते चैतन्यसुखना प्रेम पासे संसारदुःखथी ते
परांग्मुख छे. तेनी रुचिनुं जोर पलटीने, विषयदुःखोथी छूटीने आत्माना अतीन्द्रिय
आनंदनी सन्मुख थयुं छे. बहारमां विषयोनी रागप्रवृत्ति देखाय पण अंतरनी चेतना
तेनाथी अळगी छे.–
(पण) अंतरथी न्यारो रहे, जयम धाव खेलावे बाळ.