Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : रप०० आत्मधर्म : १५ :
जीव अल्पकाळमां संसारनो छेद करीने मोक्षसुखने साधे छे. अव्रती सम्यग्द्रष्टिनेय
आत्मस्वरूपमां शंकादि कोई दोष रहेता नथी.
कोई सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा तीर्थंकरपणे अवतरे, त्रण ज्ञान सहित होय ने चक्रवर्ती
पण थाय, तेने हजारो राणी वगेरे पुण्यवैभव बहारमां होय, पण अंदर ज्ञानचेतनामां
तेने जराय अडवा देता नथी. धर्मी श्रावकनी दशा कोई अलौकिक होय छे, मुनिदशानी
तो वात शी करवी? अरे, मिथ्याद्रष्टि जीवो पंचमहाव्रत पामीने नवमी ग्रैवेयक सुधी
गया, पण रागवगरना आत्माना स्वाद वगर ते जीवोने खरेखर जैनपणुं न थयुं,
केमके तेओए मिथ्यात्वमोहने जीत्यो नहि. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारे अव्रती सम्यग्द्रष्टि
पण साचो जैन थयो, तेणे मिथ्यात्वमोहने जीती लीधो; मोहनो नाश करीने सम्यग्दर्शन
वडे ते जैन थयो (ए लक्षमां राखवुं के नव ग्रैवेयकोमां मोटा भागना जीवो तो
सम्यग्द्रष्टि ज छे, मिथ्याद्रष्टि जीवो तो थोडा छे, अने नव ग्रैवेयेक पछी उपरना
देवलोकमां तो बधा जीवो सम्यग्द्रष्टि ज होय छे.)
ज्यां अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावना वेदनपूर्वक सम्यग्दर्शन थयुं त्यां ते जीव
जीतेन्द्रिय थयो; अव्रती होवा छतां तेने जीतेन्द्रिय कह्यो छे.–
जीती ईन्द्रियो ज्ञानस्वभावे अधिक जाणे आत्मने,
निश्चय विषे स्थित साधुओ भाखे जीतेन्द्रिय तेहने.
(समयसार गाथा ३१)
ते अव्रती सम्यग्द्रष्टि जीतेन्द्रिय जीव संसारदुःखथी विमुख छे. हजी अव्रतना
राग–द्वेषसंबंधी दुःखनुं वेदन तो छे, पण तेनी साथे रागथी पार चैतन्यना
अतीन्द्रियसुखनो अनुभव पण वर्ते छे; ते चैतन्यसुखना प्रेम पासे संसारदुःखथी ते
परांग्मुख छे. तेनी रुचिनुं जोर पलटीने, विषयदुःखोथी छूटीने आत्माना अतीन्द्रिय
आनंदनी सन्मुख थयुं छे. बहारमां विषयोनी रागप्रवृत्ति देखाय पण अंतरनी चेतना
तेनाथी अळगी छे.–
सम्यग्द्रष्टि जीवडो करे कुटुंब प्रतिपाळ,
(पण) अंतरथी न्यारो रहे, जयम धाव खेलावे बाळ.
जेम धावमाता बाळकने प्रेमथी नवडावे–धवरावे–बेटा कहीने बोलावे, पण