नथी, एने जन्म देनारी माता हुं नथी; तेम सम्यग्द्रष्टि जीव स्त्री–पुत्रादि कुटुंब
परिवार वच्चे होय, अव्रतना रागादिमां ने अशुभविषयोमां वर्तता होय, पण
अंतरमां चैतन्यतत्त्वने ज स्वतत्त्व जाणीने तेमां ज तन्मयता वर्ते छे, तेमांथी एक
चेतनस्वभावी छुं, आ रागादि भावो ते कांई मारा चेतनस्वभावमांथी उत्पन्न
थयेला नथी, मारो चेतनभाव कांई रागनो जनक नथी. ने चेतनभावने बाह्य
विषयो साथे कांई लागतुं–वळगतुं नथी. अहो, आवी अपूर्व चैतन्यपरिणतिनी
धारा धर्मीने निरंतर वर्ते छे. तेने रागमां के विषयोमां एकत्वभाव क्यारेय थतो
नथी, ते निरंतर जुदो ने जुदो रहे छे. वाह रे वाह! धर्मीनी दशा तो जुओ!
एटली अस्थिरता छे, ने एटलुं दुःख पण छे. धर्मीने चैतन्यनुं वीतरागीसुख पण
वर्ते छे, ने अव्रतादिनुं दुःख पण वर्ते छे,–आम बंने धारा धर्मीने वर्ते छे; एने
अज्ञानी ओळखी शकतो नथी, एटले तेने तो ज्ञानी एकलो राग करता ज देखाय
छे, पण ज्ञानीनी रागवगरनी आनंदमय ज्ञानचेतना तेने देखाती नथी. ज्ञानीने
बंने धारा एकसाथे होवा छतां तेमां चैतन्यसुख उपादेयपणे छे ने अव्रतादिनुं
दुःख हेयपणे छे. चेतनामां आवो विवेक धर्मीने निरंतर वर्ते छे. तेनी चेतना
सुखना वेदनमां तन्मय वर्ते छे, ने दुःखथी भिन्न परांग्मुख वर्ते छे. आ रीते
आनंदनो ज भोगवटो तेनी द्रष्टिमां छे.–आवा सम्यग्द्रष्टि–जैन छे ते मोक्षना