Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : रप०० आत्मधर्म : १७ :
भगवानश्री वीरनाथप्रभुना मोक्षगमननुं आ
अढीहजारमुं मंगलवर्ष चाली रह्युं छे; वीरप्रभुनी
वीतरागवाणीनो आनंदकारी प्रवाह कुंदकुंदाचार्यदेव
वगेरे संतोना प्रतापे अत्यारे चाली रह्यो छे, ने
आपणने पण तेनो स्वाद श्रीगुरुप्रतापे मळ्‌यो छे.
वळी ते वीतरागवाणीरूप परमागमो जेमां
कोतरायेला छे ने जेमां महावीरप्रभु बिराजमान
थवाना छे एवुं परमागम–मंदिर पण आ वर्षमां
तैयार थयुं छे. ते परमागमनी जे मधुरी प्रसादी
गुरुदेव आपणने आपी रह्या छे ते आप ‘आत्मधर्म’
मां वांची रह्या छो. (सं. ०)
ज्ञान स्वसंवेध छे
* परने जाणती वखते जाणनार पोते पोताने जाणनार–स्वरूपे अनुभवे छे, पर–
रूपे अनुभवतो नथी; आ रीते ज्ञान पोते स्वसंवेद्य छे, पोते पोताथी ज पोताने
जाणे छे–अनुभवे छे. ज्ञानने पोते पोताने जाणवा माटे बीजा ज्ञाननी जरूर
पडती नथी.
* आत्मानुं लक्षण ज्ञान छे, ते ज्ञान स्वसंवेदन–स्वभाववाळुं छे, पोते परने जाणे
छे ने पोताने पण ज्ञानस्वरूपे प्रसिद्ध करे छे–‘हुं ज्ञान छुं’ एम पोते पोतामां
वेदन करे छे. बीजा बधा गुणोने पण ज्ञान ज प्रकाशीने प्रसिद्ध करे छे. आवुं
ज्ञान पोते रागने के जडने जाणतां पोताने रागरूपे के जडरूपे प्रसिद्ध नथी करतुं,
पण पोताने ज्ञानचेतनारूपे ज प्रसिद्ध करे छे. ते ज्ञानमां पोताना आत्माना
अनंत धर्मो समाय छे.