Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 29 of 45

background image
: २६ : आत्मधर्म : मागशर : रप००
अनेकान्तनो चमत्कार
(समयसार १४ बोलना प्रवचनमांथी)

* गुरुदेव वारंवार कहे छे के अहो, अनेकान्त ते जैनसिद्धांतनो प्राण छे.
* अनंतगुणनी गंभीरता अनेकान्तमां भरी छे.
* ‘ज्ञान’ लक्षण छे ते अनेकान्तस्वरूप आत्माने प्रसिद्ध करीने साचुं जीवन
जीवाडे छे.
* अनेकान्तमां चैतन्यना वीतरागी अमृतनो स्वाद छे.
* ‘हुं ज्ञान छुं’ एवी अस्तिना वेदनमां, ‘ज्ञानथी विरुद्ध अन्य भावोरूपे मारुं
ज्ञान नथी’ एम नास्तिधर्मनुं वेदन पण आवी जाय छे. आ रीते वस्तु स्वयमेव
अनेकान्तपणे प्रकाशे छे.
* ज्ञानथी विरुद्ध अन्य भावोनी नास्ति जो न आवे तो ज्ञाननी अस्तिनो पण
निर्णय साचो नथी.
* ‘ज्ञान’ कहेतां ज्ञान साथेना श्रद्धा–अस्तित्व–आनंद–प्रभुता वगेरे अनंत
धर्मो तो अनेकान्तना बळे तेमां आवी जाय छे; एटले आत्माने ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां
पण एकांत थई जतुं नथी, त्यां पण अनेकान्तपणुं स्वयमेव प्रकाशे ज छे.
* ज्ञान लक्षण एवुं निर्दोष छे के ते आत्माने आत्मारूपे प्रसिद्ध करे छे, ने
परभावोथी आत्माने भिन्न राखे छे.
* ज्ञाननी पोतानी ताकात छे के पोताने तेमज परज्ञेयोने पण जाणे; परंतु त्यां
परज्ञेयो तो परपणे छे, ज्ञानपणे ते नथी. ज्ञान स्वयं पोताने ज्ञानपणे प्रकाशे छे,
ज्ञेयपणे ते पोताने प्रसिद्ध नथी करतुं.–आवी भिन्नतानुं भान ते ज अनेकान्त छे; ते
जैनधर्मनी निशानी छे.
* असंख्यप्रदेशी तारुं ज्ञानक्षेत्र ते एक अखंड छे, ते स्वक्षेत्रमां परक्षेत्रनो प्रवेश
नथी; ज्ञान स्वक्षेत्रथी बहार नीकळीने परक्षेत्रमां जतुं नथी; तेमज ज्ञाननुं एक स्वक्षेत्र
अनेक ज्ञेयो द्वारा कांई छिन्नभिन्न थई जतुं नथी.