: मागशर : रप०० आत्मधर्म : २७ :
* ज्ञान ज्ञानना सहारे छे, ज्ञान ज्ञेयना सहारे नथी. अहो, अनेकान्तमां तो
स्वाधीनता छे, निर्भयता छे, पोताथी ज पूर्णता छे.
* एकांतमतमां स्व–परनी भेळसेळरूप दगो छे; अनेकांतमार्ग तो निर्दोष
मार्ग छे, ते स्व–परनी जरापण भेळसेळ करतो नथी.
* ज्ञानमां एकपणुं तेमज अनेकपणुं बंने स्वभावो एक साथे वर्ते छे; ए ज
रीते ज्ञानमां (ज्ञानस्वरूप आत्मामां) नित्यपणुं ने अनित्यपणुं बंने स्वभावधर्मो
एकसाथे वर्ते छे; तेमांथी एकपण स्वभावने काढी नांखी शकाय नहि.
* ज्ञाननुं सत्पणुं एटले के आत्मानुं जीवन, कोई बीजाना कारणे नथी.
पण स्वयमेव पोते ज सत् छे. बीजापणे तो ज्ञान असत् छे. बस, आवुं सत्–
असत्पणुं नक्की करनार ज्ञानी पोताना स्वतत्त्वमां ज द्रष्टि मुके छे. ज्यां पोतानी
अस्ति नथी त्यां द्रष्टि कोण मुके? आ रीते अनेकान्तनुं फळ स्वसन्मुखता छे;
स्वसन्मुखतामां वीतरागता छे, ने वीतरागतानुं फळ मोक्ष छे.
* परक्षेत्रमां रहेला अनंत ज्ञेयपदार्थोने जाणवा छतां ज्ञान तो पोताना
स्वक्षेत्रमां ज रहेलुं छे, ज्ञान स्वक्षेत्रथी बहार जराय गयुं नथी. गमे तेटला दूरना
पदार्थने जाणे पण ज्ञान कांई आत्माथी दूर जतुं नथी; ते तो अभिन्नपणे आत्माना
स्वक्षेत्रमां ज छे. ज्ञाननुं अने आत्मानुं क्षेत्र कदी जराय जुदुं नथी, ने परवस्तु
आत्माना स्वक्षेत्रमां कदी आवती नथी.
* ज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव करवा माटे नजर अंदर पोताना
स्वक्षेत्रमां थंभे छे, कांई बहारमां नजर लंबाती नथी; आ रीते स्वक्षेत्रमां ज
ज्ञाननुं अस्तित्व छे, ने परक्षेत्रमां तेनुं नास्तित्व छे,–ज्ञानमां आवुं अस्ति–
नास्तिपणुं स्वभावथी ज छे.–एनुं नाम अनेकान्त.
* ज्ञान अने ज्ञेय बंनेनुं परिणमन जुदुं–जुदुं पोतपोताना स्वकाळमां ज छे.
परज्ञेयनुं परिणमन ज्ञानमां आवतुं नथी, ने ज्ञाननुं परिणमन परज्ञेयमां जतुं
नथी. स्वपरिणमनमां उत्पाद–व्यय थाय तेथी कांई ज्ञाननो नाश थई जतो नथी.
ज्ञान तो पोताना स्वकाळमां परिणम्या ज करे छे. ज्ञेयोनो नाश थतां अज्ञानी
पोतानो नाश मानी ल्ये छे, तेने ज्ञेयोथी पोतानुं भिन्न परिणमन बतावीने
अनेकान्त जीवंत राखे छे.