Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : मागशर : रप००
* ज्ञाननुं जीवन कांई परज्ञेयना अवलंबने नथी; एटले ज्ञेयना नाशथी ज्ञान
कांई नाश पामतुं नथी; ज्ञान तो पोताना ज्ञानस्वभावना आधारे ज परिणमतुं थकुं
जीवंत वर्ते छे.–आवा ज्ञानने धर्मीजीव अनेकान्तद्रष्टिथी देखे छे, एटले पर्यायनो पलटो
थवा छतां तेने पोताना नाशनी शंका नथी, भय नथी.
* अनेकांतरूप प्राणवगरनुं तो बधुं मडदा समान छे अर्थात् मिथ्या छे.
अनेकान्त ते सम्यक् जीवन छे, तेमां परथी भिन्न पोताना अनंत चैतन्यभावो सहित
आत्मा सत्पणे वेदाय छे, ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–आनंद वगेरे प्रगटे छे.
* ज्ञाननुं सत्पणुं ज्ञानभावथी छे, ज्ञाननुं सत्पणुं रागभावमां नथी.
ज्ञानभावपणे आत्मा छे ने रागादि परभावपणे आत्मा नथी–एवुं अपूर्व भेदज्ञान
अनेकान्तना बळे ज थाय छे. ज्ञान ते ज्ञान छे, ने ज्ञान ते राग पण छे–एम
अनुभवातुं नथी. ज्ञानना अनुभवमां रागनो अनुभव नथी, ने रागना वेदनमां
ज्ञाननुं वेदन नथी,–एम बंनेनुं स्वरूप तद्न जुदुं छे, तेथी ओळखाण ते अनेकान्त छे,
ते भगवान अरिहंतदेवनुं शासन छे.
* नित्यपणुं अने अनित्यपणुं–ए बंने धर्मो पण ज्ञानमां एकसाथे वर्ते ज छे.
ज्ञानमांथी अनित्यता काढी नाखवा मांगे, तो एकांत नित्य ज्ञान पण रही शके नहि.
टकवुं अने परिणमवुं, एटले नित्यपणुं तेमज अनित्यपणुं–एवुं अनेकांतपणुं ते ज्ञाननुं
स्वरूप ज छे.
* अनंतधर्मोथी भरेला आवा अनेकान्तमय ज्ञानस्वरूप आत्माने ओळखतां
भगवान आत्मा स्वानुभूतिमां अनंत निर्मळ भावो सहित प्रसिद्ध थाय छे. आवी
आत्माप्रसिद्धि ते महावीर प्रभुनो मार्ग छे.
(–जय महावीर)
“–अमर आतमराम हुं”
निज आत्मने जाण्या विना बहु दुःखने पाम्यो अरे,
सिद्धसुखने झट पामवा निजभावना भावुं हवे.
संतो करे छे ध्यान जेनुं परम ज्ञायक भाव हुं,
कदी मरणने पामुं नहीं, छुं अमर आतमराम हुं.