Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : मागशर : रप००
* चैतन्यसुखने बाह्यविषयोनी अपेक्षा नथी *
चैतन्यना आनंदनी मीठाश जेणे चाखी नथी तेने ज रागमां ने
बाह्यविषयोमां सुख लागे छे. बाह्यविषयो, पछी शुभनां निमित्त हो के अशुभनां
निमित्त हो, तेमां क्यांय धर्मी पोतानुं सुख मानता नथी. समवसरणादि संयोगो
शुभनां निमित्तो छे, स्त्री आदि संयोगो अशुभनां निमित्तो छे,–तेमां के ते तरफना
राग भावमां क्यांय धर्मी सुख मानता नथी, एमां सुख छे ज नहि; चैतन्यनुं सुख
चैतन्यथी बहार केम होय? चैतन्यस्वरूपी आत्मा पोते स्वयमेव सुखस्वभावी छे,
सुखना संवेदन माटे बहारना कोई पदार्थनी अपेक्षा तेने नथी.
अहो, अतीन्द्रियज्ञान, ने अतीन्द्रियसुख ते तो आत्मानो परमस्वभाव छे;
ए स्वभावने ज्यां अंतर्मुख थईने स्वीकार्यो त्यां पोतानुं सुख पोतामां वेद्युं, ते
धर्मी हवे बहारमां क्यांय सुखनी कल्पना करे नहि. अंदरमां ज्ञानकळा जागी त्यां
धर्मीनी ज्ञानचेतना जगतना विषयोथी विरक्त थई गई. अहो, चैतन्यनुं सुख
चखाडनारा वीतरागनां वचनो खरेखर अद्भुत छे, अमृतथी पण मीठां छे; तेनुं
रहस्य समजतां परम प्रसन्नता थाय छे ने आत्मामांथी आनंद झरे छे.
चैतन्यनुं सुख जाण्युं त्यां धर्मीनी पर्यायनो वेग ते सुख तरफ वळ्‌यो, ने
संसारनां दुःखोथी तेनी पर्याय पाछी वळी गई, आनुं नाम संवेग अने निर्वेद छे.
संसारथी पाछो फरीने, सर्वे रागथी पाछो वळीने, अंदर चैतन्यना सुख तरफ,
मोक्षमार्गना वेगे चड्यो तेने हवे विशेष भव होय नहि, ते अल्पकाळमां मोक्ष पामे
छे.–धर्मीनी अंदरनी दशा अलौकिक, अतीन्द्रिय होय छे.
वीतरागनी वाणी मोहने कापी नांखवा माटे तलवारनी तीखी धार जेवी
छे–एक घाए बे कटका! एककोर अतीन्द्रिय चैतन्यसुखमय आत्मा, ने बीजीकोर
समस्त राग अने विषयो–एम बंनेनुं सर्वथा भेदज्ञान करावीने जिनवचन
विषयोनुं विरेचन करावे छे ने चैतन्यसुखनो उत्साह जगाडे छे.–अहो, चैतन्यनुं
सुख आपनारां आवां जिनवचनो महान उपकारी छे.
चैतन्यना विषयातीत सुख पासे चक्रवर्तीपदना निधाननी पण कांई ज
किंमत नथी. कोई धर्मात्मा स्त्री आदिना संयोग वच्चे बेठो होय छतां चैतन्यना
सुख पासे तेमां सुख जरापण मानतो न होय; ने कोई अज्ञानी स्त्री आदिनो
संयोग छोडीने