सुखनो अभिप्राय पड्यो होय;– ज्ञानी अने अज्ञानीना अंतरनो आ मोटो फेर
अज्ञानी बहारथी कई रीते ओळखशे? वीतरागनी वाणी समजे अने विषयसुखनी
रुचि रहे तेम बने नहि. ज्यां विषयोमां सुखबुद्धि छे त्यां वीतरागनी वाणीनुं ज्ञान
नथी; अने ज्यां वीतरागनी वाणीनी समजण छे त्यां विषयोमां सुखबुद्धि रहेती नथी,
त्यां तो चैतन्यनुं अमृत झरे छे. तेथी कह्युं के अहो, जिनवचन परम अमृतरूप छे ते
विषय– सुखोनुं विरेचन करावनारां छे; ने सर्व दुःखोनो क्षय करावीने आत्माने
मोक्षसुख पमाडे छे.
उपदेश सांभळ्यो, तेनुं भावभासन थयुं त्यां परथी भिन्नता थईने स्वसन्मुख एकता
थाय छे, एटले अनादिनी विषयोमां सुखबुद्धि छूटी जाय छे ने चैतन्यना आनंदनो
स्वाद आवे छे, आ जिनवचननुं फळ छे. वीतरागवचननां अमोघबाण मोहनो जरूर
नाश करे छे. अहो, वीतरागनी वाणी जेना हृदयमां बेठी तेने अंदरथी चैतन्यना
आनंदना फूवारा ऊछळे छे.
स्वसन्मुखता करावीने परसन्मुखता छोडावे छे...अंदर चैतन्यना अतीन्द्रियस्वभावमां
प्रवेश करावे छे. भाई! तारे आनंदनो स्वाद लेवो होय तो अंदरमां तारा
आनंदस्वभाव पासे जा. परविषयो तरफ जतां तो तने दुःख थशे.
आनंदस्वरूप आत्मा हुं छुं एम भान थयुं.–आवी सम्यग्द्रष्टिनी अपूर्व दशा छे.–तेनी
आनंदमय चेतनामां कर्मनुं कर्तापणुं के कर्मफळनुं भोक्तापणुं नथी. आवी ज्ञानचेतनानो
अपूर्व स्वाद ते ज परमागमनी साची प्रसादी छे.
जगतमां सर्वज्ञ सदाय सत् छे, त्रिकाळने जाणनारा सर्वज्ञनो विरह त्रणकाळमां नथी,
अज्ञानी एने ओळखतो नथी. ज्ञानी ए सर्वज्ञनुं स्वरूप ओळखीने