Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : मागशर : रप००
पोते शुद्ध ज्ञानचेतनारूप परिणमतो थको सर्वज्ञताने साधे छे. अहो, ज्ञानस्वभाव!
एमां तो जगतनो नियम समाई जाय छे. एवो सर्वज्ञ ज्ञानस्वभाव जेना हृदयमां बेठो
ते तो केवळीप्रभुनो पुत्र थयो. अनंतकाळमां नहि आवेलो अपूर्व आनंद तेने
अनुभवमां आवे छे.
अरे भाई! अत्यारे जगतनी जंजाळ छोडीने आत्माने साधवानो आ अवसर
छे. जिनवरनो आवो मारग...जेमां कोई सन्देहने स्थान नथी, तेने महा भाग्ये पामीने
तुं आत्माना हितमां लाग. दुनियाना जीवो चाहे माने–न माने, एनी साथे तारे कांई
संबंध नथी. अरे, दुनिया दुनिया पासे रही, तुं तारा आत्मा पासे आव...तारो आनंद
तारा आत्मामां छे, दुनिया पासे कांई तारो आनंद नथी.
अहो, समयसार तो समयसार छे...आचार्यदेवे अनुभवना आनंदरस एमां
रेड्या छे. सर्वज्ञ अने गणधरोए जे आनंद अनुभव्यो, वीतरागी संतोए निजवैभवथी
आत्माना महान आनंदनुं जे स्वसंवेदन कर्युं, तेनो ज नमूनो आ समयसारमां छे. तेवो
ज आनंद निजवैभवने ओळखतां सम्यग्द्रष्टिने अनुभवाय छे आचार्यदेव कहे छे के
अहो! आत्माना आवा शांत–अमृतरसने हे भव्यजीवो! तमे अत्यारथी मांडीने
सदाकाळ पीओ. एना वेदनथी आत्माने परम तृप्ति थाय छे.
रागमां चेतनाने तन्मय करीने जे अनुभवे छे ते जीव गुन्हेगार छे; ते
संसाररूपी जेलमां पडे छे; अने चेतनाने रागथी अत्यंत भिन्नपणे जे अनुभवे छे ते
जीव बिनगुन्हेगार छे, निर्दोष छे, ते संसारनी जेलमां पडतो नथी, पण संसारथी मुक्त
थाय छे. अरे, आ संसारना प्रपंच अने दुःख, तेनाथी छूटवा माटे तुं ज्ञानचेतनानो
अनुभव कर. ज्ञानचेतना वगर चैतन्यनी शांतिनो बीजो कोई उपाय नथी.
अहो, आ तो अंदरनी वात छे...अंदरनो परम प्रेम लागवो जोईए. जेवी
बहारनी प्रीति करी छे तेवी अंदरनी प्रीति करतो नथी, जो चैतन्यनो यथार्थ महिमा
जाणे तो तेनी परम प्रीति जागे, ने बहारनो बधानो महिमा छूटी जाय. तेने स्व–
सन्मुखताथी आत्माना अपूर्व आनंदसहित सम्यग्दर्शन थाय. आ सम्यग्दर्शन छे ते
निश्चयथी आत्मा ज छे; आत्माना परिणाम आत्माथी जुदा नथी. आवा सम्यग्दर्शनने
हे भव्य जीवो! तमे भावथी धारण करो.–एम भगवान जिनदेवना परमागमनो
उपदेश छे.
जय महावीर