Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : मागशर : रप००
* महावीरप्रभुनी मुक्तिनुं अढीहजारमुं मंगलवर्ष *
चैतन्यना अनंत गंभीर भावोथी भरेलुं
वीरनाथनुं अनेकान्त–शासन
अहो, आत्मानुं अलौकिक स्वरूप अनेकांत–ज्ञानवडे ज
प्रसिद्ध थाय छे. अनुभवमां आवे छे. सर्वज्ञ भगवानना
जिनशासनने एटले के अनेकान्तमय वस्तुस्वरूपने सम्यग्ज्ञानी
ज जाणे छे, अहो, वीरनाथनुं अनेकान्त–शासन कोई अद्भुत
परम गंभीरताथी भरेलुं छे. कोई पण पडखेथी तेने नक्की करवा
जतां ज्ञान परथी नास्तिपणुं करीने, अंतरमां अनंत–
गुणथी भरपूर स्वभावनी अस्तिमां प्रवेशी जाय छे,
एटले शुद्धतारूपे तेनुं परिणमन थाय छे.–आ ज आत्माने
साधवानी रीत छे, आ ज मोक्षमार्ग छे, ने आ ज अरिहंतमार्गनी
उपासना छे.
वळी एकसाथे वर्तता पुरुषार्थ–नियति वगेरे पांचे
समवायनो साचो निर्णय तेने ज थाय छे के जे अनेकान्तमय
ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने ते–रूपे पोताने अनुभवे छे.
ज्ञानमय अनेकान्तनी कोई अजब ताकात छे. भाई! एकवार तुं
ज्ञानस्वभावी आत्माने नक्की कर तो तेमां बधुं आवी जशे.
अनेकांतमय ज्ञाननो अनुभव ते ‘अमृत’ छे; अमृत एवी
मोक्षदशानुं ते कारण छे.
(समयसारना परिशिष्टमां अनेकान्तमय ज्ञाननुं वर्णन चाले छे.)
‘ज्ञानमात्र आत्मा छे’ तेना अनुभवमां अनंतगुणोना निर्मळ परिणमननो
स्वाद भेगो ज छे. ज्ञानमात्र वस्तुने अनेकांतवडे ओळखनार जीव ते ज्ञानमात्रभावने
रागादिथी भिन्न देखे छे, ने पोताना अनंतगुणना निर्मळपरिणमनथी अभेद देखे छे.
–आ रीते धर्मीना अनुभवमां आत्मवस्तु स्वयमेव अनेकान्तपणे प्रकाशे छे. अने