Atmadharma magazine - Ank 362
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : मागशर : रप००
आत्माने साधवानी रीत छे, आ ज मोक्षमार्ग छे, ने आ ज अरिहंतमार्गनी उपासना
छे.
* अनेकान्तनी अजब ताकात *
अरिहंतदेवे बतावेला अनेकांतस्वरूप आत्माने जाणतां तेमां स्वभावनो,
पुरुषार्थनो, नियतिनो, स्वकाळनो अने कर्मना अभावरूप निमित्तनो–एम एकसाथे
मोक्षना पांचे समवायनो निर्णय थई जाय छे. ज्यारे ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने नक्की
करीने ज्ञान पोते ज्ञानरूप थईने परिणम्युं ने अन्य मिथ्यात्वादि भावरूप न परिणम्युं
त्यारे ज्ञाननो जेवो स्वभाव हतो तेवो पर्यायमां नक्की थयो, पर्याय स्वसन्मुख
पुरुषार्थरूप परिणमी, स्वकाळमां तेने सम्यक्त्वादि शुद्धपर्यायोनो क्रम हतो ते शरू थयो,
तेना ज्ञानपरिणमनमां कर्मनो अभाव वर्ते छे अने त्यां तेने योग्य निमित्तो देव–गुरु
वगेरे होय छे, विपरीत निमित्त होतां नथी;–आम एकसाथे वर्तता पांचेनो साचो
निर्णय तेने ज थाय छे के जे अनेकान्तमय ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने ते–रूपे
पोताने अनुभवे छे. ज्ञानमय अनेकान्तनी कोई अजब ताकात छे. ज्ञानमात्र
आत्मवस्तुना स्वीकार वगर पुरुषार्थनो स्वभावनो मोक्षनो अरिहंतनो के नियति
वगेरेनो खरो स्वीकार थई शकतो नथी. भाई, एकवार तुं ज्ञानस्वभावी आत्माने तो
नक्की कर, तेमां बधुं आवी जशे. ज्ञानमात्र भावमां आत्माना बधा धर्मो अस्तिरूप छे,
ने समस्त परपदार्थोथी तेने नास्तिपणुं छे.–तेमां पुरुषार्थ वगेरे अनंत स्वधर्मो समाई
जाय छे. धर्मीना ज्ञानअनुभवमां ते बधा अभेदपणे समाई जाय छे. आवा
अनेकान्तमय ज्ञाननो अनुभव ते ‘अमृत’ छे,–अमृत अमर–एवी मोक्षदशानुं ते
कारण छे. अनेकान्तनी ताकात अजोड छे.
* अनेकान्त–अमृत, ते आत्मानुं जीवन छे. *
अहो, ज्ञानलक्षण आत्माने तेना साचा स्वरूपे प्रसिद्ध करे छे, ते कोई दोष
(अव्याप्ति के अतिव्याप्ति) रहेवा देतुं नथी; अनंतगुणनुं परिणमन ज्ञानभावमां
समायेलुं छे, पण तेमां परनो कोई अंश के विकारनो कोई अंश आवतो नथी. ज्ञाननुं
जे स्वरूप छे तेने अज्ञानी जाणतो नथी, अने जे ज्ञाननुं स्वरूप नथी तेने ते ज्ञाननुं
स्वरूप माने छे, एवो अज्ञानी–एकान्तवादी जीव, परथी भिन्न ज्ञानरूपे पोताने नहि
अनुभवतो थको, ने पररूपे पोताने मानीने अज्ञानभावरूपे ज पोताने अनुभवतो थको
संसारमां रखडे छे ने मोहथी दुःखी थाय छे. एवा जीवोने अरिहंतदेवनुं