Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ७ :
ज्ञान ज्यां शुद्धज्ञानपणे अनुभवमां आव्युं त्यां लक्ष्यरूप आखो
अनंतधर्मस्वरूप आत्मा पण अभेदपणे अनुभवमां आवे ज छे. ज्ञानलक्षण
पोताना लक्ष्यथी अभेद छे. ज्ञानलक्षणथी जुदुं बीजुं कोई लक्ष्य नथी. समजाववा
माटे लक्षण–लक्ष्यना भेद वच्चे आवी जाय छे पण भेद रहे त्यांसुधी लक्ष्यरूप
आत्मा अनुभवमां आवतो नथी; ने एवा अनुभव वगरनो अज्ञानी जीव
ज्ञानलक्षणने पण खरेखर ओळखतो नथी, ते तो कजात एवा रागादि भावोने
चैतन्यलक्षणमां भेळवी दे छे, एटले साचा लक्ष्य–लक्षणने ते जाणतो नथी. लक्षणने
साचुं जाणे तो लक्ष्य पण प्रसिद्ध थईने अनुभवमां आवी ज जाय. लक्षणथी तेनुं
लक्ष्य छूपुं रही शके नहि, जुदुं रही शके नहि. लक्षण पर्याय पोते अंतर्मुख लक्ष्यमां
अभेद थईने आत्माने अनुभवे छे. ते अनुभूतिमां ‘आ लक्ष्यने आ लक्षण’ एवा
भेदनो कोई विकल्प नथी; त्यां तो लक्ष्य–लक्षण बंने अभेदस्वरूपे एकाकार
अनुभवाय छे. आवो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे, तेमां भगवान आत्मा प्रसिद्ध
थयो छे.
रागथी विलक्षण एवुं ज्ञानलक्षण ज्यां पोते पोताना वेदनथी प्रसिद्ध थयुं–
अनुभवमां आव्युं त्यां भगवान आत्मा पण जरूर प्रसिद्ध थयो छे. ज्ञाननो
अनुभव होय ने आत्मानो अनुभव न होय एम बने नहि; नहितर तो ज्ञान अने
आत्मा जुदा ठरे! ज्ञान साथे आखोय आत्मा अविनाभूत छे, जुदो नथी.
ज्ञानलक्षणथी जे कांई लक्षित छे ते बधुंय ज्ञानना अनुभवमां समाई जाय
छे, कांई बाकी रहेतुं नथी.
अने ते ज्ञानना अनुभवमां ज्ञानथी विलक्षण (ज्ञानलक्षण वगरना) एवा
रागादि कोई भावो आवता नथी, ते तो ज्ञानना अनुभवथी बहार ज रहे छे.
ज्यां सुधी ज्ञान साथे रागनी–विकल्पनी जरापण भेळसेळ रहे त्यां सुधी
ज्ञानलक्षण ज्ञानपणे प्रसिद्ध थतुं नथी एटले आत्मा पण त्यां प्रसिद्ध थतो नथी.
आहा, लक्षण तो एवुं अपूर्व छे के व्यवहारना बधा राग–विकल्पोने छेदी–भेदीने,
ज्ञानथी जुदा पाडीने, ज्ञान साथे एकमेक एवा अनंतधर्मस्वरूपे पोते पोताने
अनुभवे छे. आवुं अंतर्मुख ज्ञान ते अनेकान्त छे, ते भगवान महावीरनो मार्ग छे.
मति–श्रुतज्ञानतत्त्व अंतर्मुख थईने आत्मारूप थई गया, रागरूप न रह्या,
एटले रागना बंधन वगरनो अबद्धस्वरूप आत्मा प्रगट अनुभवमां आव्यो,
आवा